शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

7. दिन के उजाले में



7-
दिन के उजाले में
बात करते हो सहारे की 
रात के अँधेरे में 
डरते हो खुद अपनी ही परछाई से 
अच्छी नहीं लगती 
वफा की दुहाई तेरे ही मुंह से 
जैसे ही हो 
वैसे ही अपने को कहने में 
हिचकते हो कतराते हो क्यों ?
विश्वास ही नहीं है तुम्हे 
कि इस सच्चाई से तुम्हें लोग अच्छा कहेंगे 
अविश्वास ने खुद के विश्वास को 
 घेर रखा है इस कदर तुम्हे 
देख कर तेरी हालत आती है हंसी मुझे 
अच्छा कहलाना उतना आसान नहीं 
फिर अच्छा भी बनना क्यों चाहते हो ?
इतनी आसानी से 
जब इतना विलगाव है तुम्हारे पास 
अच्छी नहीं लगती 
नेक नियति की बात 
तुम्हारे ही मुँह से ।

सुधीर कुमार ' सवेरा '    17-09-1980

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