मंगलवार, 31 जनवरी 2012

12. दिल का दर्द बंटाओ थोड़ा


12-

दिल का दर्द बंटाओ थोड़ा
पल दो पल का का साथ निभाओ जरा 
आज दुःखों के बादल छाये 
अपने भी आज हुए पराये 
साथ तुम तो निभाओ थोड़ा 
जब - जब तुमको याद किया 
दुःख में गम में साथ दिया 
नहीं ! नहीं ! नहीं !
सुख तो मैंने पाया नहीं 
प्यार किसी का पाया नहीं 
वफा किसी का जाना नहीं 
जब से जाना दर्द ही पाया 
सुख का साथ रहा नहीं 
जब - जब तुमको याद किया 
तब - तब तुम दौड़ी आई 
   खुशियों की झोली लाई 
तेरा मेरा जन्मों का साथ 
  साथ कभी ना ये छूटे 
 जो तुम मुझ से रूठ गई 
साथ मेरा जो छोड़ गई 
कौन देगा मुझको प्यार 
आँचल की छैयां जो तेरी हंट गई 
हो जाऊँगा बेकार 
तुम रूठी तो मैं टुटा 
तुम छुटी तो जग छुटा 
   ऐसे ना तुम कभी छूटना 
साथ मेरे तुम हरदम रहना 
कर जाऊँगा भवसागर पार !


सुधीर कुमार ' सवेरा '            १३.०२.१९८०

सोमवार, 30 जनवरी 2012

11. मैं अनुभवी हो गया हूँ


11-

मैं अनुभवी हो गया हूँ 
मेरे भाग्य उनके अभाग्य 
मेरे लिए 
मैं अपराधी वे निर्दोष 
उनके लिए 
होनी को रख ताख पे 
थोप मुझ पे 
घटना का सारा दोष 
कोसा है उन्होंने जी भर 
कहा तुम दोस्त हो 
दुश्मन से भी बदत्तर हो 
वक्त पड़ा साथ का 
तो कुंए में धकेलते हो 
छिः
   तुम पर लानत है 
थूः
शिक्षित युवक  हो
लगते पर चोथू हो 
कहा उनको 
शिक्षित हूँ 
व्यवहारिक नहीं 
मत बोलो कुछ 
किया जानबूझकर है 
    कहा उन्होंने 
खैर वक्त पर संभल गया हूँ 
धिक्कारा पहले अपने को 
पर नहीं 
अब में अनुभवी हो गया हूँ ! 


सुधीर कुमार ' सवेरा '            ०८-०२-१९८०

शनिवार, 28 जनवरी 2012

10. ऐ जीवन तूं पतझर


10-

ऐ जीवन तूं पतझर
या तेरी जमीं ही है बंजर ?
  चलते हैं जिसपर केवल  खंजर 
ओढ़े हुई है फटी चादर 
मज़बूरी ही है क्या तेरा नाम ?
  क्या केवल तूं है विवशता ?
अब भी तूं अपने को जान 
क्या है तेरी आवश्यकता ?
ऐ जीवन तूं पतझर 
तेरी कीमत है अनमोल 
अब भी अपने को पहचान 
क्यों देती है विष घोल ?
ऐ जीवन तूं पतझर  
  किधर है ख्याल तेरा तूं कंहाँ  है ?
सुन ' सवेरा ' से 
यह इबादत का बंया  है
कर ले इन्साफ तूं अपने से 
हर जगह तेरा ही तो महकमा है 
गूंज उठेगी कहकहा 
हर और एक ही वाक्या  है
ऐ जीवन तूं पतझर ! 

सुधीर कुमार  ' सवेरा '            ११-०१ - १९८० 

रविवार, 15 जनवरी 2012

9. बेहद तीखे हैं मेरे अनुभव


9-
बेहद तीखे हैं मेरे अनुभव 
अविश्वसनीय अकथनीय 
सूरज की लाली किरणों ने बताई शाम में 
कलि खिली देख भौंरा खिल जाता है 
पर प्रतिफल से अनजान 
शायद वह है हम सा ही नादान
प्रकृति हाँ है या ना है 
    उसके एक वसंत - पतझर से
ना ही यह पता चलता है 
पर मांझी की पतवार 
आश को थामे हुए हूँ
उस एक दिन की तलाश में 
बरसों से भटक रहा हूँ
देखूं वो तलाश कब समाप्त होती है 
या वो तलाश मुझे ही ख़त्म करती है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '          १५-०२-१९८०