शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

31. इंसानों का पेट


31-

इंसानों का पेट  
लेकर दस का 
बना लिया है एक 
कोई और नहीं है वो सेठ 
एक तरफ इंसानों का 
आता ही नजर नहीं पेट 
अंत ही नहीं 
सुख कर है काँटा 
न जाने कितने दिनों का 
है उसका फाका 
कहाँ गया आखिर इनका पेट ?
क्या तुझे नहीं है इन सेठो से भेंट 
काट - काट कर कितनो का पेट 
बन गया है अब ये तोंदू सेठ 
पेट कटता रहा 
तोंद बढ़ता रहा 
भूख बढती गई 
तोंद फूलती गई 
गरीबी बढती गई 
अमीर उठता गया 
आँख धंसती गई 
जवानी बिकती रही 
सांस सिसकती रही 
आह बढती गई 
जिन्दगी ने मौत मांगी 
पर मौत भी भागती रही 
रह - रह कर लिपटती रही 
गर तेरे पास एक चटाई की 
सेज भी हो जायेगी 
तो सेठों को नींद नहीं आएगी 
मखमल के भी गददे
लगेंगे उसको चुभने 
आज इंसान ही देखो 
खटमल बनकर 
लगा है चूसने 
खून का एक बूंद भी पास होगा 
खटमल भी न तेरा साथ छोड़ेगा 
देखने पर तो इंसान लगता नहीं 
लग रहा है केवल ढांचा 
जैसे इंसान गढ़ने का हो 
ब्रह्मा का सांचा 
पृथ्वी भी तेरे लिए है बोझ बनी 
       तेरे जिन्दगी के हर पल में है मौत सनी 
रीढ़ का ही सारा सहारा है शरीर को 
 दे रहा है टेक यही पेट को 
लग रहा हवा के झोंके में ही 
तिनका तूफान का 
तुझ से इस बस्ती में 
किसी को कुछ और नहीं 
बस रिश्ता है इक शैतानी का 
सच्चे शैतान भी भाग चले 
देखा उन्होंने जब 
इंसान को अपने से आगे बढे 
शैतानों को शैतानों से 
होती थी नहीं दुश्मनी 
थी भी तो उन्हें इंसानों से 
देखा उन्होंने जब 
इंसानों को ही इंसान खाते हुए 
काँप गया शैतान भी 
देखा न गया तो भाग पड़े 
अब इंसानों को शैतानों का डर नहीं 
इंसानों को है डर तो इंसानों से ही 
पहले जैसी अब वो बात नहीं 
राम कृष्ण जैसे अवतारी नहीं 
हैं चूँकि अब वो शैतान नहीं 
आयेंगे भी तो 
इंसानों के बिच उन्हें पहचान नहीं 
भेड़िये की खाल और 
सियारों की आवाज नहीं 
यहाँ आते इसलिए नहीं 
जानते हैं अब गलेगी अब दाल नहीं 
बहन की इज्जत भाई 
माँ का इज्जत बेटा 
लुट रहा है यहाँ देखो 
एक दुसरे को खुल्लम - खुल्ला 
पैसे की है पूछ यहाँ 
इज्जत और आदर्श की बात नहीं 
विवेक और विचार की फिर बात कहाँ 
परोपकार को समझा जाता है बेबकूफी 
इससे बढ़कर बड़ी मुर्खता 
  यहाँ नहीं दूजा समझना 
पित रहा हूँ बिल्डिंग यहाँ एक 
क्यों दूँ तुझको कौड़ी एक 
जाते हो या दूँ उठवाकर फ़ेंक 
प्यार कहते हो तुम 
दो शरीर के भोग में 
लेने जाते हो जिसे रजनीश के योग में 
पैसा होता है क्या ?
तुम जानते नहीं 
भटक गये हो इतना 
  कुछ भी समझ पाते नहीं 
पश्चिम का रंग चढ़ा है इतना 
की अपनी संस्कृति भी  
अब समझ पाते नहीं 
गिलास तेरा लबालब है जाम से 
भर सकता नहीं अब वो गंगाजल से 
भरना भी चाहोगे तो 
लगेंगे समय बहुत 
डालना पड़ेगा गंगाजल तब तक 
उलीच - उलीच कर 
हो न जाता बाहर जाम जब तक 
इससे ज्यादा नहीं कहूँगा 
तुमसे ज्यादा अकलमंद नहीं बनूँगा 
        अपनी इस मुर्खता पर मुझको गर्व है 
इस नादानी पर मुझको न शर्म है
  तुम दोगे प्रसाद 
होगा वो मीठा उपहार 
मैं जानता हूँ 
होगा वो गालियों का बौछार 
  सत्य कहता हूँ 
मैं भी समझता हूँ 
गालियों के सिवा तुझे कुछ आता है  ?
     कह दो गलत कहता हूँ 
गाली भी सुन के मैं खुश होऊंगा पूरा 
आखिर तेरे पास जो ही था 
तुमने तो दिया वो सारा 
हुए मेरे लिए तुम्ही तो त्यागी 
मैं हूँ इसका अभिलाषी 
पर इस में भी कंजूसी न करना 
वर्ना समझूंगा अपने को हतभागी ?
      
  सुधीर कुमार ' सवेरा '                    ०२-०४-१९८०

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