बुधवार, 28 मार्च 2012

55. रेतों को है जलन


५५. 
रेतों को है जलन 
पानी के स्पर्श से 
छाया को है आतंक 
छारे हुए छप्पर  से 
लोग बना रहे हैं शक्कर 
समुद्र के भाप से 
बसंत को ला रहे हैं 
प्लास्टिक के टुकरे से 
रफ्ता - रफ्ता आसमान घट रहा है 
मानवता के ऊंचाई से 
हम बहुत दूर निकल गए हैं 
चंद्रमा पर जाने से 
पंचसितारा मुकुट लगा लिया है 
इंसान के गोस्त खाने से 
सांस लेकर भी जीना 
अब दूभर है 
संस्कार को इस कदर खाने से 
परिवेश को त्याग कर 
जाये कहाँ अब इंसान 
पैदा लेते ही जिसे 
समाज बनाने लगता है शैतान 
हवा को हड़प कर भी 
जीना हम चाहते हैं  
सूर्य को ढांप कर भी 
रौशनी लेना हम चाहते हैं 
काले सूरज से 
पूर्णमासी की कल्पना किये बैठे हैं 
हर असल को ख़त्म कर 
नक़ल में अक्स तराशते हैं 
देख कर 
सत्य की झूठी कल्पना को 
कांटे में रस ढूंढते हैं 
प्रक्रिया हमारी इतनी उलटी है 
राह जिधर अँधेरे की है 
उधर ही प्रकाश ढूंढते हैं 
गटर बना कर ढेर सारा 
उपवन का बहार ढूंढते हैं 
बागों को नोच - नोच कर 
घर को सजाते हैं 
नक़ल में अक्श असल का ढूंढते हैं 
प्रतिपल  दर पर 
चौखट किवार तोड़ते हैं  
वीरान बना कर शहर को 
अपना आशियाँ ढूंढते हैं 
हर का है वही किनारा 
जहां होगा पहला ' सवेरा '

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १२-०२-१९८४  ८.५५ pm पटना

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