गुरुवार, 16 अगस्त 2012

123 . दिन के शोर में

१२३ .

दिन के शोर में
दिल का दर्द दब जाता है
टीस सी होने लगती है
रात होते ही
जब तेरा ख्याल आता है
हँस - हँस कर
हँसा - हँसा कर
रौशनी में
दुरी तेरी भुला देता हूँ
रात होते ही
तन्हाई का एहसास होता है
जख्मों को गले
लगा लेता हूँ
दुरी ?
बस इतनी सी है
खिड़की टूट जाए
तो ?
दरवाजा मेरा खुला है
रात होते ही
होठों को सी लेता हूँ
ख्यालों में जी लेता हूँ
जख्मों को गिन -गिन कर
रातें गुजार लेता हूँ
पास हो इतनी
की तुझे छू भी नहीं सकता 
न मैं हूँ दोषी
न तूँ है दोषी
दोष उस वक्त
जिसने मुझे
तेरे इतने करीब ला दिया था
सुना मेरा घट था
जब छलका तेरा पैमाना था
मिलन भी है
तर्पण भी है
एक चाहत भी है
आशिके इस दिल का
क्या हाल बना दिया
खुद को भुला दिया
खुद को मिटा दिया !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05 - १२- १९८३
चित्र गूगल के सौजन्य से

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