शनिवार, 1 सितंबर 2012

144 . कैसी अबूझ पहेली हो तुम

144 . 

कैसी अबूझ पहेली हो तुम 
रूप रस जवानी की प्रतिमा हो तुम 
तेरे बगैर अब हर एक पल 
साँसों का मुझ पर बढ़ता है बोझ 
तेरे विरह में बादल दो बह नदियाँ बनी 
पग मेरे हो रहे हैं कमजोर 
तन्हाई का बढ़ रहा है जोड़ 
बहारें चुप हैं 
सावन रोती 
विरह के गीत 
चकोर हैं गाते 
छुप गई चंदा 
छोड़ गई है चाँदनी
दर्पण देख लगती है हँसी 
शायद मैं हूँ वही 
जो था कभी 
मनचाहा मन अब अनचाहा है 
मखमल के भी सेज 
बनी काँटों की शैय्या है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  10-06-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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