शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

187 . बिखर गया जब एक - एक पौधा


187 .

बिखर गया जब एक - एक पौधा 
चमन रहा बाँकी कहाँ 
उजड़ गया जब चमन ही सारा 
खुशबु लुटाये कौन 
एक बेचारा चाहत में सबके 
रो - रो दिन असुवन के काटे 
रातें यादों से 
फूल खिले वहाँ कैसे 
गम के काँटे जहाँ बढ़े 
बंजर जमीन से पानी की चाहत 
सिवाय तृष्णा के 
होगी ये कौन सी बाबत 
मिली जब खाख में मोहब्बत 
जीने की ये आफ़त 
आकर बता जाती है हकिकत 
चाँदी की कुछ परत 
चढ़ा जाती है मुलम्मा 
बन जाती है ये जफा का दरख़्त 
तेरी बेवफाई के बाद भी 
न जाने मिटती नहीं क्यों तेरी चाहत ?

सुधीर कुमार ' सवेरा '  09-02-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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