मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

234 . आज दिल - दिल की लगी से जलता है


234 .

आज दिल - दिल की लगी से जलता है 
हमसफ़र जो आज बनता है 
कल को अकेला ही छोड़ जाता है 
आग ही नहीं सिर्फ जलाया करते 
यहाँ इन्सान भी इन्सान से जलता है 
जिक्रे दिल क्या सुनायें 
दिल तो नाजुक काँच सा एक टुकड़ा है 
जो नजरों के अंदाज से भी टूट जाता है 
प्यार की हलकी आँच से भी पिघल जाती है 
फिर बेवफाई की भयानक चोट भला कैसे सह सकता है 
जो इश्क के परवाने चढ़े 
वो भला मौत से कैसे डर सकता है 
दिल की भी एक अलग हस्ती है 
यह एक ऐसी बस्ती है 
जो रोज उजडती है और बस्ती है 
वो दिल के सौदागर दुनियांवालो 
ये इतनी महंगी है की 
दुनिया भर की दौलत इसे खरीद नहीं सकता है  
उस दिल लगी से दिल लगा 
एक रोज उसके घर गया 
दिलजली हमसे न बोली 
दिल्लगी में मर गया 
कि ज़माने की ये बदसलूकी किससे कहें हम 
उसी ने बेअदबी की जिससे सलूक सीखा था 
कि चमन के पास रहकर भी एक फूल नहीं मिलता 
हाल ये है यारों 
किसी के मरने पे भी कफ़न नहीं मिलता !

सुधीर कुमार " सवेरा "    30-04-1984    04-00 pm 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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