शनिवार, 15 नवंबर 2014

330 . बंद जिसके अक्ल के दरवाजे

३३० 
बंद जिसके अक्ल के दरवाजे 
अर्थों के जो भेद न जाने 
अकड़ा बैठा कुर्सी पे बड़े 
कहीं आज प्रकाशक हैं कहलाते 
नैनों को आच्छादित किये 
अक्षरों के विशालन के लिए 
फिर भी वो 
सूक्ष्मत्तर भेद को न जान पाये 
गर्दन में लगे 
फांसी के गांठ को 
उठकर लूज करते हुए 
पटक रचनाओं को 
औरों के सिर पर 
कहते हैं  क्या बकवास लिखा है 
प्रेषक के डिग्री पढ़ 
रचनाओं को समझता 
सारगर्वित शब्दों को 
बकवास समझता 
छेड़खानी को बलात्कार कहता 
मारपीट को जातीय दंगा कहता 
खुद हुस्न और दौलत की 
आग में जलता रहता 
निर्दोष कलमों की 
भाषा न समझ पाता 
समाज देश , व्यक्ति के
जीवन का अर्थ न समझता 
निर्दोष व्याधि रही रचनाओं  में 
आज का प्रकाशक 
शब्दों का अर्थ हाथों से टटोलता !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  

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