शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

342 .अलग - अलग रंगों में

३४२ 
अलग - अलग रंगों में 
अलग - अलग चेहरे 
बेमुरव्वत से
दीवालों से हैं चिपके 
बेसुध बेचारी दीवालें 
सबके भेद को जाने 
वो चीखती है 
रात के अँधेरे में 
अपने नगरवासियों पर 
उनके भाग्य पर 
कभी रोती हैं 
कभी विद्रूप सी हँसी हँसती है 
वो नकाब उलटाकर 
लोगों को परिचय देती हैं 
सबके लिखे वादों को 
चुटकुले सा सुनाती है 
फिर दीवालें 
गम में डूब जाती हैं 
हर बार के 
बलात्कार से 
अब वो ऊब चुकी है 
हाय रे उसकी मज़बूरी 
ढहाना चाहकर भी 
ढाह नहीं पाती है 
रातों के सन्नाटे में 
एक सर्द आह ही 
भरकर रह जाती है 
वो क्या नहीं जानती है 
त्रिकालदर्शी है 
उसके सगे सम्बन्धी 
कहाँ नहीं हैं 
मानव के 
मानवीय ज्ञान के उद्भव से ही 
वो मानव को 
पहचानती आ रही है 
वो यह कभी नहीं कहती 
मुझ पर लगे मुखौटे को 
तुम अपना लो 
और अपना 
भाग्य विधाता बना लो 
हर बार वो कहती है 
मुझ पर लगे 
इन चेहरों को 
गौर से देखो 
तुम सबों से 
मैं इसे अलग करना चाहता हूँ 
हर बार वो कहती है 
ये चेहरे 
उदविलाव हैं गिरगिट हैं 
सियार हैं 
बच निकलो तुम इनसे 
यही इनकी पहचान है 
पर हाय रे !गूंगा , बहरा , अँधा मानव 
अपने ही हाथों से 
अपने पैरों में बेड़ियां डाल रहा है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ रांची 
१० - २० am   

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