शनिवार, 29 नवंबर 2014

344 .मेरे वक्त यूँ गुजर रहे

३४४ 
मेरे वक्त यूँ गुजर रहे 
गोया मैं कोई गुजरा हुआ वक्त होऊं 
हर लम्हा मेरे 
यूँ कट रहे 
जैसे सूखे पेड़ों की 
कटती हुई डाल हूँ 
भविष्य का अँधेरा 
मुझे आँख भी नहीं 
खोलने दे रहा 
मेरी हर कामना 
धरातल पर आने से पहले ही 
टूटे हुए तारों की तरह 
लुप्त हो जाती है 
मेरी अभिलाषा के फूल 
खिलने से पहले ही 
मरुभूमि में शहादत को पा जाते 
मेरी हर आकांक्षा 
अतृप्त ही रह जाती है 
मैं अपने को 
सत्य - असत्य के पलड़े पर 
असंतुलित रूप में 
जीवन में काँटे को 
दोलायमान पाता हूँ 
और मेरी अनकही कहानी 
कहासुनी के पृष्टभूमि पर ही 
चिपकी हुई रह जाती है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ राँची 
१२ -२० pm 

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