शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

356 . क्या करूँ अर्पण मैं

३५६ 
क्या करूँ अर्पण मैं 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
तोड़ कर तेरे सुमन से 
पुष्प करता हूँ अर्पण तुम्हे 
दर्द की खुशबु है जिसमे 
गम की रंगीन पंखुरियाँ 
विश्वासघात के पत्तों से 
उसकी है हर शाख हरी 
धोखे और स्वार्थ से 
जिसकी हर गाँठ भरी  
सादर समर्पित है 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
और क्या करूँ अर्पण तुम्हे 
कुछ भूली मुस्कान 
कुछ रूठे अरमान 
यादों के कफ़न से लिपटी 
बेशुमार ख़ुशी और गम को 
अपने आदर्शों के टूटते 
हर साँस को 
अपने ईमानदारी और 
चरित्र के नाम बने 
बदनामी के कागज के फूलों को 
शत - शत समर्पित करता हूँ 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
करता हूँ अर्पण 
आखरी मौत अपनी तुम्हे 
इसका सदा मुझे 
काफी अफ़सोस रहेगा 
सूरज भी नहीं 
एक दीपक की 
लौ की तमन्ना थी तुम्हे 
मैं जुगनू भी 
तेरे आँगन में 
न चमका सका 
मैं खारों से ही सदा 
रहा खेलता 
पर तुझे 
एक सुखी गुलाब भी 
न दे सका 
कोई प्यास न थी 
बस छोटी सी एक आस थी 
अकिंचन आस का 
वो कतरा भी 
न कर सका अर्पण तुम्हे 
ऐ मेरे जीवन 
भूल जाना तूँ मुझे 
भूले से भी गर 
जो आऊँ याद तुम्हे 
करना न कभी माफ़ मुझे 
बस यही वादा 
करता हूँ अर्पण तुम्हे !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०४ - ०७ - १९८४ 
०४ - ३० pm 

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