रविवार, 17 जुलाई 2016

575 . श्रीसीता


                                   श्रीसीता 
रे नरनाह सतत भजु ताही ! जाहि नहि जननि जनक नहि जाही !
बसु नइहरा ससुरा के नाम ! जननिक सिर चढ़ि गेलि ओही गाम !!
सासुक कोर में सुतल जमाए ! समधि विलह सँ बिलहल जाए !!
जाहि उदर सँ बाहर भेलि ! से पुनि पलटि ततहि चलि गेलि !!
भनहि विद्यापति सुकवि सुजान ! कविक मरमकेँ कवि पहिचान !!

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