मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

615 .दुर्गा - जय जय दुर्गे जगत जननी। दुर कर भव भए होह दहिनी।।


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                                         दुर्गा
जय जय दुर्गे जगत जननी। दुर कर भव भए होह दहिनी।।
खने नील खने सित निरमान। खन कुंकुम पंगक तनु अनुमान।।
राका विधुमुख नवविधु मराल। रक्त नयन सोभ केश कराल।।
लोहित रदन लोहित कर पान। भुकुटि कुटिल पुनि मोन धेआन।।
श्रुति भजें दस भूजें हर दुःख मोर। ऋषीहि पुरान गनल भुज तोर।।
करे वर अभय खड्ग जपमाल। मुकुर शूलधनु खेटक विशाल।।
न जानिअ आगमे तुअ कत रूप। तेतिस कोटि देव तोहि निरूप।।
पुनि पुनि होइहो देवि गोचर लैह। नाग पास बन्धन मोक्ष दैह।।
आनन्दे देवाबन्द नति गाव। हरि चढ़ि रिपु हनि पुरह भाव।।
( हिस्ट्री ऑफ़ मैथिलि लिटरेचर ) देवानन्द  

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