शुक्रवार, 17 मार्च 2017

709 . दुर्गासप्तसती---------------- जय जय दुर्ग - दलनि मन दुर्गे , दुरित निवारिणि माये।


                                    ७०९
                            दुर्गासप्तसती
जय जय दुर्ग - दलनि मन दुर्गे , दुरित निवारिणि माये। 
महिष निशुम्भ शुम्भ सहारिणि , भव तारिण भव जाये।।माहे ० 
अरि सँ मिलि अनुचर नृप सुरथक , जखन हरल धन - धामे। 
एकसर भागि गहन बन अएला जत मुनि मेधस नामे।। माहे ० 
सतत विकल मन घुमइत अनुखन नहि छल किछु विसरामे। 
दुष्टों प्रजाजनक कल्याणक चिन्ता आठो यामे।। माहे ० 
भेटल वैश्य समाधि ततहि जे , छल आकुलित उदासे। 
पुत्र कपुत्र छीनि धन तकरा , देने छल वनवासे।। माहे ० 
परिचय बुझि नृप सुरथ पुछल कहु किए अंह एहन हताशे। 
कहि सभ कथा समाधि , कहल नृप ! सुनिअ हमर अभिलाषे।। माहे ० 
यदपि कुपुत्र भेल , पुनि तकरे , अछि कुशलक जिज्ञासे। 
जानि पड़य नहि हमर किएक मन लपेटल ममता पाशे।। माहे ०
सुनि नृप कहल सुनिअ हमरो मन , अछि एहने अज्ञाने। 
लूटल राज सबहि जन मिलि पुनि तकरे कुशलक ध्याने।। माहे ० 
बुझितहु मन नहि बुझए एकर अछि , कारण कओन विशेष। 
चलु दुहुजन मिलि मेघस ऋषि सँ लेब एकर उपदेश।। माहे ० 
मेधस ऋषिक समीप पहुँचि दुहु नत शिर कएल प्रणामे। 
अति विनीत भए बितल कथा कहि , कहल अपन मनकामे।। माहे ० 
मेधस कहल सुनिअ दुहु जन अहं हमर वचन दए काने। 
थिक मायाक खेल सभटा ई , सुविदित शास्त्र प्रमाने।। माहे ० 
थिकथि योगमाया ई विष्णुक हिनकर चरित अपारे। 
करथि सृष्टि ; पालथि , ओ नाशथि , अपरूप अछि बेबहारे।। माहे ० 
जकर दहिन , ई से नहि धन - सुख पबइत अछि निर्वाने। 
जकर वाम , तकरहि दुख - जीवन , घोर नरक अबसाने।। माहे ० 
मधुकैटभ हनि विधिक कएल जे त्राण प्राण भगवाने। 
से हिनकहि अतुलित बल - महिमें , कहइछ सकल पुराने।। माहे ० 
जखन महिष सन प्रबल असुर सँ हारल देव - समाजे। 
तखन शक्ति ई तकरहु मारल राखल इन्द्रक लाजे।। माहे ० 
दुष्ट निशुम्भ - शुम्भ पुनि देवक , छिनल जखन अधिकारे। 
नाना रूप धएल देवी ई , कएल असुर संहारे।। माहे ० 
धूम्रनयन ओ चंड - मुंड हनि , रक्तक लेलनि पराने। 
भेल अकंटक राज सुरेशक , कएल देव यश गाने।। माहे ० 
एहि विधि जखन दनुज - बाधा सँ हो पीड़िन संसारे। 
तखन - तखन दुष्टक दलनक हित , लेथि देवि अवतारे।। माहे ० 
तेँ अम्बाक ध्यान कए दुहुजन , करू पूजन सविधाने। 
भेटत राज अतल धन पाएब , पाएब सुविमल ज्ञाने।। माहे ० 
सुनि दुहुजन देवीक चरणमे , कएल अपन मन लीने। 
कए संयम पूजल निशिवासर , निद्राहार विहीने।। माहे ० 
तीन वर्ष पर देवि प्रकट भए पुरल दुहुक मन - कामे। 
पलटल सुरथक राज , समाधिक , भेल ज्ञान अभिरामे।। माहे ० 
सएह अहाँ दुर्गे मिथिलेशक , संकट करिअ विनाशे। 
ईशनाथ सुतकेँ नहि बिसरब , अछि मनमे विश्वासे।। माहे ० 
                                                    ईशनाथ झा       

कोई टिप्पणी नहीं: