सरस्वती पूजनोत्सव
( वसंत पंचमी पर माँ सरस्वती की पूजा )
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥
अर्थातः- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो।
भारतीय सनातन संस्कृति में सरस्वती के जिस स्वरुप की परिकल्पना की गयी है , उसमे देवी का एक मुस्कानयुक्त मुख और चार हाथ हैं ! एक हाथ में माला , दूसरे हाथ में वेद है , शेष दो हाथों से वीणावादन कर रही है ! हंस पर विराजमान उनके मुखारविंद पर मुस्कान से आंतरिक उल्लास प्रकट होता है ! उनकी वीणा भाव - संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है ! स्फटिक की माला से अध्यात्म और वेद पुस्तक से ज्ञान का बोध होता है ! उनका वाहन हंस है , जो नीर - क्षीर विवेक संपन्न होता है और विवेक ही सद्बुद्धि कारक तत्व होता है ! अतः माता सरस्वती चित्त में सात्विक भाव और कलात्मकता की सहज अनुभूति जगाने की प्रेरणा देती है !
सरस्वती पूजन का वास्तविक अर्थ तभी है , जब हम अपने मन से ईर्ष्या - द्वेष , छल - कपट , ऊंच - नीच और भेदभाव जैसे मानसिक विकारों को विसर्जित कर शुद्ध एवं सकारात्मक सोच को अपनाएं !शास्त्रों में उल्लेख है कि माँ सरस्वती की कृपा होने पर महामूर्ख भी महाज्ञानी बन सकते हैं ! जिस डाल पर बैठे उसी को काटने वाले जड़ बुद्धि कालिदास कैसे एक दिन महाकवि बन गए , यह एक बहुश्रुत दृष्टान्त है ! ऐसे दृष्टान्त बताते हैं कि ज्ञान की उत्पत्ति होने के बाद व्यक्ति कर्म में निरत हो जाता है , जिसका परिणाम उसे उत्कृष्टता के साथ मिलता है !
प्रकृति जब शीतकाल के अवसान के पश्चात नवल स्वरुप धारण करती है , तब हम विद्या और संगीत की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती का आह्वाहन एवं पूजन करते हैं ! इससे हमारे भीतर नव - रस एवं नव स्फूर्ति का संचार होता है ! यह वह आनंदमय समय होता है जब खेतों में पीली पीली सरसों खिल उठती है , गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं , आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती है ! पुष्पों पर रंगबिरंगी तितलियां मंडराने लगती है , भ्रमर गुंजार करने लगते हैं , ऐसे में आता है बसंत पंचमी का पावन पर्व ! ग्रंथों की मान्यता है कि बसंत ऋतु और कामदेव का अटूट संबंध है ! कामदेव का धनुष भी फूलों का है ! उनका एक नाम अनंग है ! अर्थात वे बिना देह के हैं ! वे सभी प्राणियों की देह में अवस्थित हो जाते हैं ! हमारी बुद्धि और विवेक पर काम आच्छादित न हो जाए , इसलिए हमें ज्ञान की देवी सरस्वती की आवश्यकता होती है ! ज्ञान , विवेक और कला - साहित्य के द्वारा हम काम रूपी ऊर्जा का सदुपयोग सार्थक सृजन में करते हैं ! संभवतः इसीलिए हमारे मनीषियों ने वसंत पंचमी पर माँ सरस्वती की पूजा का विधान किया होगा ! माँ सरस्वती का माघ माह के शुक्ल पक्ष में पंचमी के दिन प्रायः सभी आस्थावान कवि , लेखक , गायक , वादक , संगीतज्ञ , नर्तक , कलाकार और रंगकर्मी इत्यादि अपनी इष्ट - देवी के प्रति श्रद्धा से नत होते हैं !
भगवती सरस्वती के अनन्य उपासक महर्षि याज्ञवल्कय
महर्षि याज्ञवल्कय की जन्म - भूमि मिथिला है ! मिथिला के लोग प्रारम्भ से ही मातृ - भक्त हैं ! महर्षि याज्ञवल्कय भी परम मातृ भक्त थे ! वे वल्यावस्था में अपने शिक्षा - गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया करते थे ! माता के सामने वह किसी को भी ऊंचा देना नहीं चाहते थे ! माता की भक्ति में वे इस तरह लीन रहा करते थे कि गुरु के ज्ञान और गुरु के गौरव का उनके ह्रदय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था ! इसीलिए गुरुदेव ने उन्हें शाप दे दिया था कि तूं मुर्ख ही रहेगा ! इस शाप को छुड़ाने के लिए सिवा माता की शरण के उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था ! बालक जाये भी कहाँ ? दुःख हो या महा - दुःख माता के बिना रक्षक संसार में कौन है ?
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता की स्तुति की ! मनसा वाचा कर्मणा उन्होंने जो स्तुति की , उस पर माता का ह्रदय द्रवित हो उठा ! महर्षि याज्ञवल्कय शाप से ही छुटकारा नहीं पाना चाहते थे , वे यह भी चाहते थे कि विद्वान बनकर रहें ! इसलिए माता से उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि मेरी बुद्धि निर्मल हो जाय , मैं विद्वान बनूँ ! माता ने वैसा ही किया तथा बुद्धि - दात्री सरस्वती का रूप धारण कर महर्षि याज्ञवल्कय को वैसा ही बनने के लिए अपने आशीर्वाद दिए ! माता एक ही हैं किन्तु अपने भक्तों यानी पुत्रों पर कृपा करने के समय जब जिस रूप में उसकी आवश्यकता होती है , वह उसी रूप में आकर रक्षा करती है ! एक ही माता दूध पिलाते समय धायी का काम करती है , जन्म देने के समय जननी बन जाती है , मल - मूत्र साफ़ करने के समय मेहतरानी बन जाती है , रोगी बनने पर वैद्य बन जाती है , सेवा सुश्रुषा के समय दासी बन जाती है और न जाने अपने पुत्र के लिए वह क्या - क्या बन जाती है , इसे अनुभवी ही हृदयंगम कर सकता है !
महर्षि याज्ञवल्कय को विद्वान बनना था इसलिए माता ने सरस्वती का रूप धारण कर उनकी बुद्धि को , उनकी मेधा शक्ति को और प्रतिभा को निर्मल बना दिया , वे संसार की सारी वस्तुएं स्पष्ट देखने लगे ! स्तुति का प्रभाव ऐसा ही होता है !
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता की ऐसी ही स्तुति की , जिससे वे प्रसन्न हो गयीं और वरदान दिया कि " तुम्हारी बुद्धि सूर्य की किरणों की तरह सर्वत्र प्रवेश करनेवाली होगी और जो कुछ अध्यन - मनन - चिंतन करोगे , वह सब तुम्हें सदा - सर्वदा स्मरण रहेगा " यह है मातृ भक्ति का प्रसाद !
महर्षि याज्ञवल्कय उसी समय से तीक्ष्ण बुद्धिवाले हो गए ! उन्होंने जो कुछ भी लिखा , वह आज तक भारत में ही नहीं , भारत से बाहर भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है ! " याज्ञवल्कय - स्मृति " और उसका " दाय भाग " भारतीय क़ानून का एक महान अंश है ! यह सब माता की कृपा का ही सुपरिणाम है !
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता को सोते जागते , उठते , बैठते - सदा - सर्वदा जो स्तुति की , उससे प्रभावित होकर माता ने उनकी मूर्खता सदा के लिए दूर कर दी ; गुरु के शाप से छुड़ा दिया ; विद्या का अक्षय भंडार उनके सामने रख दिया !
वसंत पंचमी वसंत की आरंभिकी है ! वसंत प्रेम का ऐसा कुम्भ है जहाँ हम संजीवन स्नान करते रहते हैं ! माघ शुक्ल पंचमी से ऐसी रसवती धारा चलती है जिसमे संगीत , साहित्य , कलाएं अवगाहन करती रहती हैं ! इस दिन को अबूझ मुहूर्त वाला भी माना जाता है ! यानी सब कुछ शुभ व् मांगलिक ! वसंत कविता और कला का घर है ! प्रत्येक पुष्प , प्रत्येक पत्ती कविता पाठ करती है , यदि आप सुनें तो अनुभव करेंगे ! हमारी आभा का सर्वोत्तम प्राण केंद्र वसंत है ! केवल कवि की कल्पना में ही वसंत रमणीय नहीं है , सचमुच में वसंत के आगमन से प्रकृति रम्य लगती है ! पर्यावरण व् पारिस्थितिकी भी सम हो जाते हैं ! शीत व् ग्रीष्म का मध्य है ! चन्द्रमा की दुग्ध स्निग्ध ज्योत्स्ना , कोयल की कूक , सुमनों का सौरभ , अशोक की सुषमा सभी इस समय आह्लादकारी लगते हैं ! हरित संहिता में लिखा है - वसंत के समय प्रमुदित कोकिलों की कूक से अरण्य , उद्यान गूंज उठते हैं ! वन उपवन तथा पर्वत श्रेणियाँ फूलों के सुवास से सुवासित हो उठती हैं ! संगीत दामोदर के अनुसार छह राग व् छत्तीस रागिनियां हैं ! इन रागों के मध्य वसंत एक राग है ! कहते हैं कि वसंत पंचमी को वसंत राग सुनना अभीष्ट को पाना है ! वसंत पंचमी से सरस्वती का वृहत हेतु है ! सरस्वती के आठ अंग हैं - लक्ष्मी मेधा , धरा , पुष्टि , गौरी , तुष्टि , प्रभा व् धृति !
वसंत ऋतु पुराकाल से आज तक मनुष्य को सम्मोहित करती रही है ! आज से होली के गीत प्रारम्भ हो जाते हैं ! यदि वसंत हमारे भीतर के राग का रूपक है तो उसे पृथ्वी पर सुरक्षित रखना हमारा उत्तर आधुनिक कर्तव्य है ! वन समाप्त हो रहे हैं ! उत्तर आधुनिक , औद्योगिक महानगरीय समय को देखते हुए वसंत ऋतु हमसे प्रश्न करती है ! वह जानना चाहती है कि मनुष्य से समाज का विलगीकरण कहाँ तक जाएगा ! आकाश , तारे , वृक्ष धरती के गीत , नदी के सहस्त्रशीर्ष स्नान से हमारे संबंध अजनबी की तरह होंगे ! क्या हमारी नयी विचार प्रणाली वसंत पर्व पर अपने को अश्लील गीतों पर थिरकने और संत वैलेंटाइन के प्रेम पाश में ही जकड़े रखेंगे !
महर्षि याज्ञवल्कय की तपस्विनी पत्नी मैत्रेयी की प्रार्थना को हाथ जोड़कर हम भी दोहराएं " असतो माँ सद गमय , तमसो माँ ज्योतिर्गमय , मृत्योर्मामृतं गमय " !
अर्थात - हे परमात्मन ! मुझे असत्य से हटाकर सत्य - मार्ग पर ले आओ , अंधकार से निकालकर प्रकाश में लाओ ! जीवन - मरण के बंधन से छुड़ाकर मुझे श्रेष्ठ अमरत्व दो !
( वसंत पंचमी पर माँ सरस्वती की पूजा )
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥
अर्थातः- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो।
भारतीय सनातन संस्कृति में सरस्वती के जिस स्वरुप की परिकल्पना की गयी है , उसमे देवी का एक मुस्कानयुक्त मुख और चार हाथ हैं ! एक हाथ में माला , दूसरे हाथ में वेद है , शेष दो हाथों से वीणावादन कर रही है ! हंस पर विराजमान उनके मुखारविंद पर मुस्कान से आंतरिक उल्लास प्रकट होता है ! उनकी वीणा भाव - संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है ! स्फटिक की माला से अध्यात्म और वेद पुस्तक से ज्ञान का बोध होता है ! उनका वाहन हंस है , जो नीर - क्षीर विवेक संपन्न होता है और विवेक ही सद्बुद्धि कारक तत्व होता है ! अतः माता सरस्वती चित्त में सात्विक भाव और कलात्मकता की सहज अनुभूति जगाने की प्रेरणा देती है !
सरस्वती पूजन का वास्तविक अर्थ तभी है , जब हम अपने मन से ईर्ष्या - द्वेष , छल - कपट , ऊंच - नीच और भेदभाव जैसे मानसिक विकारों को विसर्जित कर शुद्ध एवं सकारात्मक सोच को अपनाएं !शास्त्रों में उल्लेख है कि माँ सरस्वती की कृपा होने पर महामूर्ख भी महाज्ञानी बन सकते हैं ! जिस डाल पर बैठे उसी को काटने वाले जड़ बुद्धि कालिदास कैसे एक दिन महाकवि बन गए , यह एक बहुश्रुत दृष्टान्त है ! ऐसे दृष्टान्त बताते हैं कि ज्ञान की उत्पत्ति होने के बाद व्यक्ति कर्म में निरत हो जाता है , जिसका परिणाम उसे उत्कृष्टता के साथ मिलता है !
प्रकृति जब शीतकाल के अवसान के पश्चात नवल स्वरुप धारण करती है , तब हम विद्या और संगीत की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती का आह्वाहन एवं पूजन करते हैं ! इससे हमारे भीतर नव - रस एवं नव स्फूर्ति का संचार होता है ! यह वह आनंदमय समय होता है जब खेतों में पीली पीली सरसों खिल उठती है , गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं , आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती है ! पुष्पों पर रंगबिरंगी तितलियां मंडराने लगती है , भ्रमर गुंजार करने लगते हैं , ऐसे में आता है बसंत पंचमी का पावन पर्व ! ग्रंथों की मान्यता है कि बसंत ऋतु और कामदेव का अटूट संबंध है ! कामदेव का धनुष भी फूलों का है ! उनका एक नाम अनंग है ! अर्थात वे बिना देह के हैं ! वे सभी प्राणियों की देह में अवस्थित हो जाते हैं ! हमारी बुद्धि और विवेक पर काम आच्छादित न हो जाए , इसलिए हमें ज्ञान की देवी सरस्वती की आवश्यकता होती है ! ज्ञान , विवेक और कला - साहित्य के द्वारा हम काम रूपी ऊर्जा का सदुपयोग सार्थक सृजन में करते हैं ! संभवतः इसीलिए हमारे मनीषियों ने वसंत पंचमी पर माँ सरस्वती की पूजा का विधान किया होगा ! माँ सरस्वती का माघ माह के शुक्ल पक्ष में पंचमी के दिन प्रायः सभी आस्थावान कवि , लेखक , गायक , वादक , संगीतज्ञ , नर्तक , कलाकार और रंगकर्मी इत्यादि अपनी इष्ट - देवी के प्रति श्रद्धा से नत होते हैं !
भगवती सरस्वती के अनन्य उपासक महर्षि याज्ञवल्कय
महर्षि याज्ञवल्कय की जन्म - भूमि मिथिला है ! मिथिला के लोग प्रारम्भ से ही मातृ - भक्त हैं ! महर्षि याज्ञवल्कय भी परम मातृ भक्त थे ! वे वल्यावस्था में अपने शिक्षा - गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया करते थे ! माता के सामने वह किसी को भी ऊंचा देना नहीं चाहते थे ! माता की भक्ति में वे इस तरह लीन रहा करते थे कि गुरु के ज्ञान और गुरु के गौरव का उनके ह्रदय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था ! इसीलिए गुरुदेव ने उन्हें शाप दे दिया था कि तूं मुर्ख ही रहेगा ! इस शाप को छुड़ाने के लिए सिवा माता की शरण के उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था ! बालक जाये भी कहाँ ? दुःख हो या महा - दुःख माता के बिना रक्षक संसार में कौन है ?
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता की स्तुति की ! मनसा वाचा कर्मणा उन्होंने जो स्तुति की , उस पर माता का ह्रदय द्रवित हो उठा ! महर्षि याज्ञवल्कय शाप से ही छुटकारा नहीं पाना चाहते थे , वे यह भी चाहते थे कि विद्वान बनकर रहें ! इसलिए माता से उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि मेरी बुद्धि निर्मल हो जाय , मैं विद्वान बनूँ ! माता ने वैसा ही किया तथा बुद्धि - दात्री सरस्वती का रूप धारण कर महर्षि याज्ञवल्कय को वैसा ही बनने के लिए अपने आशीर्वाद दिए ! माता एक ही हैं किन्तु अपने भक्तों यानी पुत्रों पर कृपा करने के समय जब जिस रूप में उसकी आवश्यकता होती है , वह उसी रूप में आकर रक्षा करती है ! एक ही माता दूध पिलाते समय धायी का काम करती है , जन्म देने के समय जननी बन जाती है , मल - मूत्र साफ़ करने के समय मेहतरानी बन जाती है , रोगी बनने पर वैद्य बन जाती है , सेवा सुश्रुषा के समय दासी बन जाती है और न जाने अपने पुत्र के लिए वह क्या - क्या बन जाती है , इसे अनुभवी ही हृदयंगम कर सकता है !
महर्षि याज्ञवल्कय को विद्वान बनना था इसलिए माता ने सरस्वती का रूप धारण कर उनकी बुद्धि को , उनकी मेधा शक्ति को और प्रतिभा को निर्मल बना दिया , वे संसार की सारी वस्तुएं स्पष्ट देखने लगे ! स्तुति का प्रभाव ऐसा ही होता है !
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता की ऐसी ही स्तुति की , जिससे वे प्रसन्न हो गयीं और वरदान दिया कि " तुम्हारी बुद्धि सूर्य की किरणों की तरह सर्वत्र प्रवेश करनेवाली होगी और जो कुछ अध्यन - मनन - चिंतन करोगे , वह सब तुम्हें सदा - सर्वदा स्मरण रहेगा " यह है मातृ भक्ति का प्रसाद !
महर्षि याज्ञवल्कय उसी समय से तीक्ष्ण बुद्धिवाले हो गए ! उन्होंने जो कुछ भी लिखा , वह आज तक भारत में ही नहीं , भारत से बाहर भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है ! " याज्ञवल्कय - स्मृति " और उसका " दाय भाग " भारतीय क़ानून का एक महान अंश है ! यह सब माता की कृपा का ही सुपरिणाम है !
महर्षि याज्ञवल्कय ने माता को सोते जागते , उठते , बैठते - सदा - सर्वदा जो स्तुति की , उससे प्रभावित होकर माता ने उनकी मूर्खता सदा के लिए दूर कर दी ; गुरु के शाप से छुड़ा दिया ; विद्या का अक्षय भंडार उनके सामने रख दिया !
वसंत पंचमी वसंत की आरंभिकी है ! वसंत प्रेम का ऐसा कुम्भ है जहाँ हम संजीवन स्नान करते रहते हैं ! माघ शुक्ल पंचमी से ऐसी रसवती धारा चलती है जिसमे संगीत , साहित्य , कलाएं अवगाहन करती रहती हैं ! इस दिन को अबूझ मुहूर्त वाला भी माना जाता है ! यानी सब कुछ शुभ व् मांगलिक ! वसंत कविता और कला का घर है ! प्रत्येक पुष्प , प्रत्येक पत्ती कविता पाठ करती है , यदि आप सुनें तो अनुभव करेंगे ! हमारी आभा का सर्वोत्तम प्राण केंद्र वसंत है ! केवल कवि की कल्पना में ही वसंत रमणीय नहीं है , सचमुच में वसंत के आगमन से प्रकृति रम्य लगती है ! पर्यावरण व् पारिस्थितिकी भी सम हो जाते हैं ! शीत व् ग्रीष्म का मध्य है ! चन्द्रमा की दुग्ध स्निग्ध ज्योत्स्ना , कोयल की कूक , सुमनों का सौरभ , अशोक की सुषमा सभी इस समय आह्लादकारी लगते हैं ! हरित संहिता में लिखा है - वसंत के समय प्रमुदित कोकिलों की कूक से अरण्य , उद्यान गूंज उठते हैं ! वन उपवन तथा पर्वत श्रेणियाँ फूलों के सुवास से सुवासित हो उठती हैं ! संगीत दामोदर के अनुसार छह राग व् छत्तीस रागिनियां हैं ! इन रागों के मध्य वसंत एक राग है ! कहते हैं कि वसंत पंचमी को वसंत राग सुनना अभीष्ट को पाना है ! वसंत पंचमी से सरस्वती का वृहत हेतु है ! सरस्वती के आठ अंग हैं - लक्ष्मी मेधा , धरा , पुष्टि , गौरी , तुष्टि , प्रभा व् धृति !
वसंत ऋतु पुराकाल से आज तक मनुष्य को सम्मोहित करती रही है ! आज से होली के गीत प्रारम्भ हो जाते हैं ! यदि वसंत हमारे भीतर के राग का रूपक है तो उसे पृथ्वी पर सुरक्षित रखना हमारा उत्तर आधुनिक कर्तव्य है ! वन समाप्त हो रहे हैं ! उत्तर आधुनिक , औद्योगिक महानगरीय समय को देखते हुए वसंत ऋतु हमसे प्रश्न करती है ! वह जानना चाहती है कि मनुष्य से समाज का विलगीकरण कहाँ तक जाएगा ! आकाश , तारे , वृक्ष धरती के गीत , नदी के सहस्त्रशीर्ष स्नान से हमारे संबंध अजनबी की तरह होंगे ! क्या हमारी नयी विचार प्रणाली वसंत पर्व पर अपने को अश्लील गीतों पर थिरकने और संत वैलेंटाइन के प्रेम पाश में ही जकड़े रखेंगे !
महर्षि याज्ञवल्कय की तपस्विनी पत्नी मैत्रेयी की प्रार्थना को हाथ जोड़कर हम भी दोहराएं " असतो माँ सद गमय , तमसो माँ ज्योतिर्गमय , मृत्योर्मामृतं गमय " !
अर्थात - हे परमात्मन ! मुझे असत्य से हटाकर सत्य - मार्ग पर ले आओ , अंधकार से निकालकर प्रकाश में लाओ ! जीवन - मरण के बंधन से छुड़ाकर मुझे श्रेष्ठ अमरत्व दो !