माता भुवनेश्वरी
पण्डित मुनीश्वर झा
पण्डित मुनीश्वर झा
पण्डित ज्योतिषाचार्य पीताम्बर झा
पण्डित ज्योतिषाचार्य पीताम्बर झा
पण्डित राज कुमार झा
पण्डित राज कुमार झा
" धर्माचार्य तांत्रिक ज्योतिषी पंडित श्री श्री १००८ मुनीश्वर झा का जीवन वृतांत। " राजा जनक माँ सीता या यञवल्क्य की भूमि मिथिला का स्थान भारत वर्ष के अंदर सबसे ऊपर है, एवं इसका गौरव पूर्ण इतिहास इसका महिमा मंडित करता है। शाक्त की पूजा एवं तंत्र साधना में , इस क्षेत्र का अपना स्थान रहा है। इसी मिथिला क्षेत्र में मधुबनी शहर से करीब तीन किलोमीटर उत्तर पूरब में मंगलवाणी वर्तमान में मंगरौनी ग्राम में अवस्थित है। इस मंगरौनी का अतीत काफी गौरव पूर्ण है। इसी गांव में पंडित मदन उपाध्याय ने अपनी तपस्या के बल से इस गांव का नाम उज्जवल किया। इसी गांव में १० जून सन १८९७ ई० तदनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी वृहस्पतिवार गंगादशहरा के दिन परमात्मा की असीम अनुकम्पा से एक सात्विक मैथिल ब्राह्मण परिवार में पंडित श्री दरबारी झा माता श्रीमती सरस्वती देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ। पिता ने बड़े प्यार से इस बालक का नाम मुनीश्वर झा रखा। चार साल के उम्र में ही सिर से पिता का साया उठ गया। घर की स्थिति बहुत दयनीय थी परन्तु माँ सरस्वती देवी तनिक भी विचलित हुए बिना इनकी शिक्षा को आगे बढ़ाये रखा। १९०५ ई में इनकी माता ने इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया , इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के संस्कृत विद्वानों के संरक्षण एवं मार्गदर्शन में हुआ। उस समय मंगरौनी गांव भी संस्कृत शिक्षा के केंद्रों में से एक था। तत्पश्चात पांच वर्षों तक मधुबनी के वेल्हार वासी पंडित गोकुलानंद झा के अधीन ज्योतिष , रमल शास्त्र का अध्ययन किया।
इनकी रूचि आध्यात्म एवं पूजा पाठ की ओर स्वतः थी। अठारह वर्ष की आयु में माता की आज्ञा एवं इक्षानुसार बाबूबरही निवासी पण्डित श्री कान्त झा की कन्या के साथ विवाह हुआ। पत्नी श्रीमती देवसुन्दरी देवी पूजा , धार्मिक अनुष्ठान , संध्यावंदन आदि में इनको भरपूर सहयोग किया करती थीं। वे साक्षात् देवी स्वरूपा थी जिनके सहयोग के बिना गुरूजी महाराज शायद अपने अनुष्ठान , पूजा कर्म एवं प्रसिद्धि में अधूरे रह जाते। फिर आगे के विद्या अध्यन जैसे ज्योतिष कर्म काण्ड एवं तंत्र के अध्यन हेतु घर से निकल पड़े। सर्वप्रथम गया पहुंचकर इन विषयों का अध्यन किया कुछ समय पश्चात पण्डित श्री कृष्णचन्द्र झा के अधीन कलकत्ता संस्कृत संघ एसोसिएसन विशुद्धानन्द विश्वविद्यालय में ज्योतिष विषय का १९९२ ई० में एवं लघु कौमुदी १९२३ ई० तक का पाठन किया जिसका मूल प्रमाणपत्र आज भी स्थान पर उपलब्ध है। कोलकाता से पुनः वे सिन्ध हैदराबाद वर्तमान में पाकिस्तान पहुंचकर ज्योतिष विद्या में बहुत ही ख्याति एवं प्रसिद्धि प्राप्त किये। वहां बहुत से लोग स्वेक्षा से उनका शिष्य बनना स्वीकार्य किया। पुनः वहां से काठगोदाम हिमाचल प्रदेश एवं ज्वालामुखी एवं भारतवर्ष में अनेक सिद्ध पीठों का भ्रमण , पूजन एवं तंत्र साधना करते हुए बंगाल प्रान्त में सिद्ध स्थल तारापीठ पहुंचे। वहां वे पत्नी सहित शमसान साधना , लता साधना , एवं शव साधना जो तंत्र साधना की मुख्य विद्याएं हैं निर्विघ्न पूर्वक संपन्न किये। माँ कामाख्या जो तंत्र साधना की मुख्य विद्द्याएँ हैं निर्विघ्न पूर्वक संपन्न किये। माँ कामाख्या जो तंत्र साधना की सबसे ऊँची एवं लम्बी मंदिर है , के स्थान पर पहुंचकर वहां की सबसे ऊँची चोटी पर माता भुवनेश्वरी के मंदिर में दो वर्षों की अथक तपस्या से माँ भुवनेश्वरी से उनका साक्षात्कार हुआ। उन्होंने माँ से सिर्फ इतना ही माँगा की माँ आप मेरी जन्मभूमि मंगरौनी चले जहाँ मैं आपकी आराधना एवं जनकल्याण दोनों कर सकूंगा। माँ भुवनेश्वरी प्रसन्न होकर अपने इस पुत्र को अपनी स्वीकृति दी। फिर वे मंगरौनी , अपने जन्मस्थली आकर सबसे पहले माता भुवनेश्वरी की मिटटी की मूर्ति बनाकर पूजन अर्चन करने लगे। इसी बीच लाल बाबा नाम का एक मद्रासी साधक इनके संरक्षण में तंत्र साधना सीखने लगे। चार वर्षों की अथक परिश्रम से उन्हें इस विद्या में सिद्धि मिली। उन्हीं के आग्रह पर जयपुर से माता के संगमरमर की मूर्ति गुरूजी महाराज ने मंगवाने का आदेश दिया। इसी बीच १९३४ ई० में भूकम्प से त्रस्त लोगों ने अपनी रक्षार्थ गुरूजी से विनती की। गुरूजी ने कहा कि विष्णु यज्ञ विधि पूर्वक करने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा , यज्ञ का आयोजन मंगरौनी नवरत्न में किया गया। इस यज्ञ के मुख्य आचार्य पंडित मुनीश्वर झा बनाये गये। पुनः अपने कुटी पर रहकर चौबीस लाख गायत्री महामंत्र का शास्त्र एवं विधि विधान के अनुसार अनुष्ठान को करने में बहुत कठिन श्रम होता है। इसी बीच जयपुर से माता की मूर्ति मंगाई गयी एवं आश्विन शुक्ल अष्टमी रविवार दिनांक २८ / ०९ / १९४१ ई० को आगमोक्त तांत्रिक विधि विधान से विधि पूर्वक इनकी स्थापना हुई। कुछ ही दिनों बाद इन्होने स्वेच्छा से क्षेत्रन्यास ( अपनी सीमा के बाहर कभी भी एवं कहीं भी नहीं जाना ) ले लिया। इनकी प्रसिद्धि दिन प्रति दिन बढ़ती गई एवं कई मूर्धन्य विद्वान एवं कर्मकाण्डी भी यहाँ आते रहे। १९५१ ई० में पूजयपाद स्वामी करपात्री जी महाराज स्वयं गुरूजी से साक्षात्कार करने आए , इसी बीच यात्रियों एवं उनके शिष्यों के आने का क्रम बढ़ता ही गया जिनके ठहरने हेतु उन्होंने एक धर्मशाला का निर्माण कराया जो हवन कुण्ड के बगल में ही है , स्थान के समीप ही दिनांक २७ /०२ / १९५२ ई० को गुरूजी ने चातुष्चरण यानी चारों वेद से यज्ञ कर एक पोखरा जिसका नाम कष्टहरणी है का निर्माण कराया गया। भारत वर्ष के चुने हुए विद्वानों एवं कर्मकाण्डियों को बुलाकर यज्ञ को सम्पादित किया गया। ऐसी मान्यता एवं प्रमाण है कि इस पोखरे में स्नान करने से सभी प्रकार के रोग एवं व्याधि नष्ट हो जाते हैं , फिर मधुबनी के बाबू साहेब स्व० जगदीश नन्दन सिंह द्वारा दिए गए एकादशरुद्र की स्थापना अनेक विद्वानों के सहयोग एवं तांत्रिक विधि से दिनांक १० / ०५ / १९५९ ई० को किया गया। उसी मंदिर परिसर में श्री श्री १०८ गौड़ी शंकर ,काली जी विष्णु के दशावतार के प्रतिमाओं की स्थापना की। आषाढ़ कृष्ण पंचमी वृहस्पतिवार दिनांक १४ / ०६ / १९७९ ई० उनकी धर्म पत्नी स्वर्ग सिधार गई। उनका श्राद्ध गुरु महाराज ने विधि विधान पूर्वक स्वयं संपन्न किया। अब उन्हें इस स्थान के लिए एक योग्य एवं कुशल उत्तराधिकारी की तलाश थी। चूँकि उन्हें अपनी कोई संतान नहीं थी , पूर्व में भी उन्होंने इस हेतु अपने दूसरे भ्रातृ पुत्र को इस हेतु चयन किया किया किन्तु इनकी अयोग्यता अकर्मण्यता जन कल्याण हेतु लगन का आभाव देखा , उन्हें इस कार्य से वंचित कर दिया। अब यह प्रश्न उनके लिए चिन्ता का विषय था सो बहुत सोंच विचार के बाद अपने प्रथम भ्रातृ के द्वितीय पुत्र ज्योतिषाचार्य पण्डित श्री पीताम्बर झा की कर्मठता लगनशीलता एवं योग्यता समझकर अपना उत्तराधिकारी बनाया। अपने सान्निध्य एवं शिष्यत्व में उन्हें इस दिशा में समुचित शिक्षा दी। अब स्थान पर होने वाले पूजा- पाठ भोग - राग , सामायिक उत्सव , यज्ञ अनुष्ठान आगत अतिथि सत्कार एवं अन्य धार्मिक एवं पुनीत कार्य का भार पण्डित श्री पीताम्बर झा के ऊपर है जो निष्ठां पूर्वक इसका संपादन करते आ रहे हैं। अग्रहण शुक्ल अष्टमी सोमवार दिनांक ०८ / १२ / १९८६ ई० को नित्यलित्यालीन , प्रातः स्मरणीय , आदर्श महापुरुष ब्रह्मलीन हो गए। उनकी मुखाग्नि श्राद्धकर्म उनकी इक्षानुसार श्री पीताम्बर झा ने पूर्ण वैदिक रीती से किया , चूँकि उन्हें गुरूजी ने अपना कर्तापुत्र भी वैधानिक रूप से बना लिया था। श्री श्री १००८ गुरु महाराज का दैनिक कार्य चार बजे सुबह से गुरुस्मरण एवं उनकी वंदना से प्रारम्भ होता था। शयन में जाने से पहले तक वे हर अवसर के लिए संस्कृत मंत्रोच्चारण करते थे। इस स्थान पर भारत वर्ष ही नहीं बल्कि नेपाल आदि जगहों से भी श्रद्धालु अपनी कामना लेकर आते थे जिनका निवारण गुरु महाराज के द्वारा किया जाता था। दरभंगा के तत्कालीन महाराज महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह एक बार अस्वस्थ हो गए। जीने की सम्भावना कम थी पर उनके द्वारा किये गए अनुष्ठान से वे स्वस्थ हो गए। इस स्थान के सम्बन्ध में कई आशचर्य जनक घटनाएं जो इस क्षेत्र में सर्वविदित है इनसे कई लोगों ने दीक्षा ली। इनमे प्रमुख हैं श्री हरिकांत झा , राघोपुर स्व० कुशेश्वर नाथ सिन्हा एवं सुदामा देवी , श्री तारकेश्वर नाथ सिन्हा , अधिवक्ता एवं श्रीमती सावित्री देवी , मधुबनी के श्री सुशिल कुमार सिन्हा , अधिवक्ता एवं श्रीमती राजन सिन्हा , काठमांडू , श्री नरसिंह नारायण सिन्हा , श्रीमती इन्दु सिन्हा , श्री सुरेन्द्र कुमार सिन्हा एवं श्रीमती सुषमा सिन्हा , श्री मनोज कुमार सिन्हा एवं श्रीमती मधुलिका सिन्हा , श्री संतोष कुमार सिन्हा एवं श्रीमती अमिता सिन्हा , सभी मधुबनी श्री धर्म प्रकाश मंगला श्री ओम प्रकाश मंगला , श्री समलेश कुमार पटियाला पंजाब , स्व० द्वारका प्रसाद बजाज , स्व० कृष्ण प्रसाद बजाज , रानीगंज एवं देश के कई क्षेत्रों के लोग प्रमुख हैं एवं श्री गुरु जी की इन लोगों पर असीम कृपा रही है। आरम्भ से ही धोती एवं गमक्षा धारण करने वाला व्यक्तित्व जैसे सांसारिक सुखों एवं भोगो को अपने वश में कर रखा था। सात बीघे के क्षेत्रान्यास में करीब पचास वर्ष तक रहकर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि यदि मनुष्य अपने कर्मों पर रहकर माँ जगदम्बा के भरोसे अपनी जीवन नैया रख दे तो उसे किसी वस्तु की कमी नहीं रहेगी। इस अवधी में भी उन्हें विश्व भर में होने वाली घटनाओं की पूरी जानकारी रहती थी , यद्यपि वे कभी भी समाचार पत्र भी नहीं पढ़ते थे।
एक बार तत्कालीन महामहिम राज्यपाल श्री अनंतशयनम आयंगर माँ भगवती के दर्शनार्थ आये सरकारी तंत्र उनके लिए विशेष व्यवस्था करना चाहते थे पर गुरु जी ने स्पष्ट रूप से कहा उनके लिए विशेष व्यवस्था मैं करूँगा। उनके आगमन पर गुरूजी ने उन्हें कुश की चटाई आसन दिया दोनों में में संस्कृत में ही भावनाओं एवं विचारों का आदान प्रदान हुआ विदाई के समय उन्हें मिथिला के संस्कृत के अनुरूप विदाई दी गयी। उनके विचार वाणी एवं व्यव्हार उच्च कोटि के थे , उनके समाधिस्थ हो जाने से जैसे लोग इस दिशा में अनाथ हो गए हैं लेकिन यह सोंचना सर्वथा गलत होगा वे नहीं हैं , वे सब जगह उपस्थित हैं हम जब भी कभी भटकन महसूस करते हैं तो वे साक्षात् हमें मार्गदर्शन देते हैं। धर्माचार्य गुरूजी के तपस्या की शक्ति अभी भी इतनी प्रबल है कि यहाँ दूर - दूर से लोग बराबर आया करते हैं , खासकर बासन्ती नवरात्रा एवं शारदीय नवरात्रा में और उनकी मनोकामना पूर्ण होती है , यहाँ लोगों के कष्ट यथा भूतप्रेत उन्माद आदि का उपचार एवं निराकरण होता आ रहा है एवं वर्तमान में भी पण्डित श्री रामेश्वर झा एवं जिन्हे गुरूजी की सेवा करने का सुअवसर मिला उनके उत्तराधिकारी पंडित श्री पीताम्बर झा के संरक्षण में किया जाता है। कष्टहरणी में स्नान माँ भुवनेश्वरी की पूजा अर्चना एवं एकादशरुद्र एवं गौड़ीशंकर के दर्शनमात्र से ही बहुत व्याधि एवं रोग नाश हो जाता है , वर्तमान में भी दूर - दूर से लोग अपने कल्याण हेतु यहाँ अनुष्ठान करवाते हैं। यहाँ विचित्र दैवी शक्ति को अनुभूति होती है और जन साधारण को शान्ति का अनुभव होता है प्रत्येक दिन सुबह एवं संध्याकाल में मधुबनी नगर एवं आस - पास के गांव के लोग टहलने के बहाने इस स्थान का दर्शन करते हैं जिससे एक पंथ दो काज यानि टहलना और माँ का दर्शन दोनों प्राप्त होता है। पण्डित श्री श्री १००८ मुनीश्वर झा द्वारा किया गया स्थापना एवं निर्माण इस प्रकार है -
१ - श्री श्री १००८ करुणामयी भुवनेश्वरी देवी का स्थापना आश्विन शुक्ल अष्टमी रविवार दिनांक २८ / ०९ / १९४१ ई०।
२ - लकड़ी का दो महला धर्मशाला का निर्माण आषाढ़ शुक्ल अष्टमी रवि दिनांक ०३ / ०७ / १९४९ ई०।
३ - कष्टहरणी पोखरा का निर्माण कार्य एवं यज्ञ १९४९ ई० में निर्माण कार्य एवं चतुश्चरण यज्ञ फाल्गुन शुक्ल तृतीया बृहस्पतिवार दिनांक २७ / ०२ /१९५२ ई०।
४ - गौड़ीशंकर एकादशरुद्र महादेव विष्णु का दशावतार देवताओं का मंदिर निर्माण तथा स्थापना वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया मंगल दिनांक ३० /०४/ १९६८ ई०
६-पिण्डस्थल गयाक्षेत्र का स्थापना आश्विन शुक्ल दशमी रविवार दिनांक १९ /१०/१०८० ई०
७ - तंत्राश्रम मकान का निर्माण आषाढ़ शुक्ल षष्ठी सोमवार दिनांक २४ /०६ /१९८५ ई०।
इस बीसवीं सदी के मिथिलांचल में धर्माचार्य पण्डित श्री मुनीश्वर झा के ऐसे तपस्वी तांत्रिक एवं ज्योतिषी नहीं हुए।
पण्डित श्री मुनीश्वर झा अग्रहण शुक्ल अष्टमी सोमवार दिनांक ०८ /१२ / १९८६ ई० को ब्रह्मलीन हो गये।
मैंने गुरु महाराज से प्रश्न किया -
प्रश्न १ - गुरुदेव आपको पहला साक्षात्कार कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर - पहला साक्षात्कार करुणामयी भगवती से कामाख्या जी में हुआ और वहां से भगवती के आदेश पर ही कुछ स्थानों में तपस्या कर मंगरौनी आया। करुणामयी माँ भगवती का दर्शन हुआ और आज्ञा हुई भविष्य में सेवा वृद्धि करने की अतः आज्ञानुसार मंगरौनी में आकर क्षेत्र न्यास लिया और माँ की कृपा से कुछ वर्ष में ही मंदिर की स्थापना भी हो गयी।
प्रश्न २- गुरुदेव आपको दूसरों के दुःख दर्द का अनुभव स्वयं कैसे होता है तथा आप कैसे निराकरण व उपचार करते हैं ?
उत्तर - आत्मशक्ति के द्वारा दूसरों के दुःख दर्द का अनुभव होता है और माँ भुवनेश्वरी का स्मरण कर जो उपचार बताता हूँ या विभूत देता हूँ उसमें मेरा दृढ विश्वास रहता है इसी सिलसिला में उन्होंने यह भी बताया बहुत समय पहले की बात है दरभंगा अस्पताल के सिविल सर्जन डा० साहब का अपना तथा डॉक्टरी इलाज से फायदा नहीं हुआ और बहुत तकलीफ बढ़ गई इसी समय सिविल सर्जन डा० साहब आकर मुझसे अनुरोध किया कि मैं चलकर उनकी पत्नी को आशीर्वाद दूँ। मैंने कहा मैं तो स्थान छोड़कर नहीं जा सकता हूँ। अगर आप माँ की शरण में उन्हें ला सके तो अच्छी हो जाएगी , उन्हें आश्चर्य हुआ और पत्नी यद्यपि बहुत तकलीफ में थी फिर भी किसी प्रकार ले आए करुणामयी की कृपा से कुछ ही घण्टों में स्वस्थ होकर टहलने लगी मानों उसे कुछ हुआ ही नहीं था। दरभंगा में जब तक डॉक्टर साहेब रहे सपत्नी आते जाते रहे। करुणामयी सर्वशक्तिमान है अटल विश्वास होना चाहिए।