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राजा जनक और शुकदेव जी के भोग - मोक्ष सम्बन्धी प्रश्नोत्तर।
जगदम्बा के समीप जाने के लिए कोई बंधन नहीं है। जितना समय मिले और जब मिले , एक चित्त से जगदम्बा का स्मरण करना ही पर्याप्त है। जगदम्बा - स्मरण के लिए समय का कोई बंधन नहीं है। जैसे पनिहारिन सर पर पानी के दो घड़े उठती है , बच्चा भी साथ है , बात भी दूसरों से करती है , पर उसका सारा ध्यान घड़ों पर ही रहता है। इसी प्रकार दुनिया के व्यक्ति भी यदि चाहें , तो अपने नित्य व्यवहार आदि सांसारिक कर्तव्य करते हुए श्री जगदम्बा में ध्यान लगाये रह सकते हैं।
शुकदेव जी अपने पिता व्यास जी क लिखे हुए ब्रह्म सूत्र पढ़कर कहने लगे - धर्मात्मन ! यह बात तो मेरे मन में बिलकुल दम्भ सी प्रतीत हो रही है कि राजा जनक प्रसन्नता - पूर्वक राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त है। पिता जी ! भला , जो राज्य करता है , वह कैसे विदेह हुआ ? मेरे मन में बड़ा शंका उत्त्पन्न हो गया है। अतः अब मैं उन महाराज को देखना चाहता हूँ की जल में रहकर भी कमल - पत्र भांति उससे अछूते रहनेवाले वे जगत में कैसे रहते हैं ? पिता जी ! जिसने भोग लिया है , वह अभुक्त रह जाये और जिसने कर लिया है , वह अकृत रह जाये , यह कैसे हो सकता है ? पिता जी ! मैंने अभी तक किसी भी राजा को जीवन्मुक्त नहीं देखा। फिर राजा जनक गृहस्त रहकर कैसे जीवन्मुक्त हैं , यही महँ शंका मेरे मन में हो रही है। अतः अपना संदेह दूर करने के निमित्त मैं मिथिला - पूरी जाता हूँ।
व्यास जी बोले - बेटा शुकदेव ! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम बड़े बुद्धिमान हो। पुत्र ! जनक जी के द्वारा अपना सन्देह निवृत करने के पश्चात तुरंत यहाँ आ जाना। तदन्तर वेदाध्यन में तत्त्पर होकर सुख पूर्वक मेरे पास रहना।
व्यास जी के इस प्रकार कहने पर शुकदेव जी मिथिला जा पहुंचे। धन्य धन्य से परिपूर्ण उस उत्तम नगरी में जाने पर उन्होंने देखा कि सभी प्रजा सुखी है और सर्वत्र सदाचार का पालन हो रहा है।
शुकदेव जी के आगमन का समाचार सुनकर राजा जनक ने उनका स्वागत किया। उन्हें उत्तम आसन पर बैठाया। राजा जनक ने उनसे पूछा - ' महाभाग ! आप बड़े निःस्पृह महात्मा हैं। मुनिवर ! किस काम से आपका यहाँ पधारना हुआ ? बताने की कृपा कीजिये।
शुकदेव जी बोले -- महाराज ! पिता व्यास जी ने मुझसे कहा कि तुम विवाह कर लो , क्योंकि सभी आश्रमों में उत्तम गृहस्थाश्रम ही है ' परन्तु उनकी आज्ञा को बन्धन - कारक मानकर मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा - ' यह बन्धन नहीं है ' तब भी मैंने उनकी बात नहीं मानी। मेरी मनोवृति को समझकर मुनि - वर व्यास जी बोले - तू मिथिला चला जा। वहां राजा जनक रहते हैं। वे याज्ञिक पुरुष एवं जीवन्मुक्त हैं। ' विदेह ' नाम से उन्हें सारा जगत जनता है। वहां वे अकण्टक राज्य करते हैं। राज्य का भार संभालते हुए भी माया के बन्धनों से मुक्त हैं। राजा जनक जो तेरे मानसिक सन्देह का निराकरण कर देंगे। पिता की आज्ञा मानकर मैं आपकी पूरी में आ गया। आप निष्पाप पुरुष हैं। मैं संसार के बन्धन से मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे क्या करना चाहिए , यह बताने की कृपा करें।
जनक जी ने कहा - मानद ! बल वती इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करना बड़ा कठिन काम है। ये इन्द्रियां अपक्व - बुद्धि वाले पुरुष के मन में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है। यदि सन्यास ले लेने पर भी काम वासना जाग उठे , तो फिर वह पुरुष उस इच्छा को कैसे शांत कर सकता है? वासनाएं बड़ी दुर्जरा होती हैं। ये शांत नहीं होती। अतः इनका वेग शान्त करने के लिए क्रमशः त्यागी बनना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहकर भी सदा शान्त रहे , बुद्धि में विकार उत्पन्न न होने दे , आत्म - शक्ति का चिन्तन करे , श्रीजगदम्बा - चिन्तन की प्रसन्नता ह्रदय में भरी रहे। ऐसा प्राणी भव बन्धन से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। अनघ ! देखो ,मैं राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त हूँ। मैं इच्छानुसार कर्म कर लेता हूँ ; किन्तु कोई भी कर्म मुझे बन्धन में नहीं दाल पाता ! मनुष्यों को बन्धन में डालने और मुक्त करने में देह और इन्द्रियां कारण नहीं हैं ,जिस कारण की सत्ता नहीं है , वह बांध कैसे सकेगा ? पांचो तत्त्व और उनके गन केवल दीखते हैं , उनकी वास्तविक सत्ता नहीं है। ब्रह्मण ! आत्म - शक्ति अचिन्त्य , शुद्ध - स्वरुप और निर्लेप है। वह केवल अनुमान से जानी जाती है ; कभी प्रत्यक्ष नहीं होती। फिर वह बन्धन में कैसे आयेगी ?
श्री शुकदेव जी ने कहा - महाराज ! मेरा ह्रदय इस सन्देह से अलग नहीं हो पाता कि जिसके चारों ओर माया का विस्तार है , उसकी स्पृहा कैसे शान्त हो सकती है ? वह मुक्त कैसे हो सकता है ? राजन ! धन की , राज्य सुख की तथा संग्राम में विजय पाने की अभिलाषा आपके ह्रदय में बानी है। जीवन मुक्त कैसे हुए ? चोर में चोर बुद्धि तथा तपस्वी में साधु - बुद्धि रखते हैं। अपने और पराये का ज्ञान आपको है ही , फिर आप में ? राजन ! जब मेरे मन में वैराग्य का उदय हो गया और सभी सुख - दुःख आदि गुण शान्त हो गये , तब घर , धन और सुन्दर स्त्री से मुझे क्या प्रयोजन ? आप अनेक आसक्तियों से युक्त तरह - तरह की बातें सोंचते रहते हैं और कहते हैं कि मैं जीवन्मुक्त हूँ ! मुझे तो आपका यह व्यवहार दम्भ ही जान पड़ता है। राजन ! आपके कुल में उत्पन्न होनेवालों का ' विदेह ' नाम ही रख दिया जाता है ! जैसे किसी मुर्ख का नाम ' विद्याधर ' , अंधे का नाम ' दिवाकर ' और दरिद्र का नाम ' लक्ष्मीधर ' रख दिया जाय , तो उनके वे नाम अनर्थक ही हैं।
जनक जी ने कहा -- द्विजवर ! गुरु व्यास जी एक आदरणीय पुरुष हैं। माना , तुम उनके पास न रहकर वन में जाना चाहते हो। वहां भी तो मृगों से तुम्हारा सम्बन्ध होगा ही। यह धरती सम्बन्धहीन नहीं है। जब पञ्च - महाभूतों भी स्थान रिक्त नहीं है , तब तुम वहां निस्संग कैसे रह सकोगे ? मुने ! भोजन की चिंता जब कभी साथ छोड़ नहीं सकती , फिर तुम निश्चिन्त कैसे हुए ? जिस प्रकार वन में रहते हुए भी तुम्हे अपने दण्ड और मृग - चर्म की चिन्ता बानी रहती है , वैसे ही मुझे अपने राज्य की चिंता है। तब हम दोनों की चिंता समान रही या नहीं ? बल्कि दूर देश में जाने के कारण तुम्हारा मन अधिक चिन्तित रहेगा। मेरे मन में तो सन्देह की कल्पना भी नहीं उठती। जगत मुझे ( आत्म - शक्ति को ) बांध नहीं सकता - मैंने यह निश्चित धारणा बना ली है। अतः मैं सभी समय सजग रहता हूँ। ' मैं जगज्जाल में फँस गया हूँ ' यह शंका तुम्हे निरन्तर दुःखार्णव में डुबाया करती है। इसलिए अब सजग हो जाओ।
जनक जी का उपर्युक्त कथन सुनकर शुकदेव जी का मन मुग्ध हो गया। शंकाये नष्ट हो गयी। वे समझ गए कि जीवन्मुक्त होने के लिए जगज्जननी के संसार से भागना नहीं है। अपितु यहीं रहकर , सजग होकर , सतर्क होकर , सहज रूप में सभी कर्मो को करते हुए जीवन्मुक्त हो सकते हैं। जनक जी से आज्ञा लेकर वे व्यासाश्रम को वापस चल पड़े।
राजा जनक और शुकदेव जी के भोग - मोक्ष सम्बन्धी प्रश्नोत्तर।
जगदम्बा के समीप जाने के लिए कोई बंधन नहीं है। जितना समय मिले और जब मिले , एक चित्त से जगदम्बा का स्मरण करना ही पर्याप्त है। जगदम्बा - स्मरण के लिए समय का कोई बंधन नहीं है। जैसे पनिहारिन सर पर पानी के दो घड़े उठती है , बच्चा भी साथ है , बात भी दूसरों से करती है , पर उसका सारा ध्यान घड़ों पर ही रहता है। इसी प्रकार दुनिया के व्यक्ति भी यदि चाहें , तो अपने नित्य व्यवहार आदि सांसारिक कर्तव्य करते हुए श्री जगदम्बा में ध्यान लगाये रह सकते हैं।
शुकदेव जी अपने पिता व्यास जी क लिखे हुए ब्रह्म सूत्र पढ़कर कहने लगे - धर्मात्मन ! यह बात तो मेरे मन में बिलकुल दम्भ सी प्रतीत हो रही है कि राजा जनक प्रसन्नता - पूर्वक राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त है। पिता जी ! भला , जो राज्य करता है , वह कैसे विदेह हुआ ? मेरे मन में बड़ा शंका उत्त्पन्न हो गया है। अतः अब मैं उन महाराज को देखना चाहता हूँ की जल में रहकर भी कमल - पत्र भांति उससे अछूते रहनेवाले वे जगत में कैसे रहते हैं ? पिता जी ! जिसने भोग लिया है , वह अभुक्त रह जाये और जिसने कर लिया है , वह अकृत रह जाये , यह कैसे हो सकता है ? पिता जी ! मैंने अभी तक किसी भी राजा को जीवन्मुक्त नहीं देखा। फिर राजा जनक गृहस्त रहकर कैसे जीवन्मुक्त हैं , यही महँ शंका मेरे मन में हो रही है। अतः अपना संदेह दूर करने के निमित्त मैं मिथिला - पूरी जाता हूँ।
व्यास जी बोले - बेटा शुकदेव ! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम बड़े बुद्धिमान हो। पुत्र ! जनक जी के द्वारा अपना सन्देह निवृत करने के पश्चात तुरंत यहाँ आ जाना। तदन्तर वेदाध्यन में तत्त्पर होकर सुख पूर्वक मेरे पास रहना।
व्यास जी के इस प्रकार कहने पर शुकदेव जी मिथिला जा पहुंचे। धन्य धन्य से परिपूर्ण उस उत्तम नगरी में जाने पर उन्होंने देखा कि सभी प्रजा सुखी है और सर्वत्र सदाचार का पालन हो रहा है।
शुकदेव जी के आगमन का समाचार सुनकर राजा जनक ने उनका स्वागत किया। उन्हें उत्तम आसन पर बैठाया। राजा जनक ने उनसे पूछा - ' महाभाग ! आप बड़े निःस्पृह महात्मा हैं। मुनिवर ! किस काम से आपका यहाँ पधारना हुआ ? बताने की कृपा कीजिये।
शुकदेव जी बोले -- महाराज ! पिता व्यास जी ने मुझसे कहा कि तुम विवाह कर लो , क्योंकि सभी आश्रमों में उत्तम गृहस्थाश्रम ही है ' परन्तु उनकी आज्ञा को बन्धन - कारक मानकर मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा - ' यह बन्धन नहीं है ' तब भी मैंने उनकी बात नहीं मानी। मेरी मनोवृति को समझकर मुनि - वर व्यास जी बोले - तू मिथिला चला जा। वहां राजा जनक रहते हैं। वे याज्ञिक पुरुष एवं जीवन्मुक्त हैं। ' विदेह ' नाम से उन्हें सारा जगत जनता है। वहां वे अकण्टक राज्य करते हैं। राज्य का भार संभालते हुए भी माया के बन्धनों से मुक्त हैं। राजा जनक जो तेरे मानसिक सन्देह का निराकरण कर देंगे। पिता की आज्ञा मानकर मैं आपकी पूरी में आ गया। आप निष्पाप पुरुष हैं। मैं संसार के बन्धन से मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे क्या करना चाहिए , यह बताने की कृपा करें।
जनक जी ने कहा - मानद ! बल वती इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करना बड़ा कठिन काम है। ये इन्द्रियां अपक्व - बुद्धि वाले पुरुष के मन में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है। यदि सन्यास ले लेने पर भी काम वासना जाग उठे , तो फिर वह पुरुष उस इच्छा को कैसे शांत कर सकता है? वासनाएं बड़ी दुर्जरा होती हैं। ये शांत नहीं होती। अतः इनका वेग शान्त करने के लिए क्रमशः त्यागी बनना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहकर भी सदा शान्त रहे , बुद्धि में विकार उत्पन्न न होने दे , आत्म - शक्ति का चिन्तन करे , श्रीजगदम्बा - चिन्तन की प्रसन्नता ह्रदय में भरी रहे। ऐसा प्राणी भव बन्धन से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। अनघ ! देखो ,मैं राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त हूँ। मैं इच्छानुसार कर्म कर लेता हूँ ; किन्तु कोई भी कर्म मुझे बन्धन में नहीं दाल पाता ! मनुष्यों को बन्धन में डालने और मुक्त करने में देह और इन्द्रियां कारण नहीं हैं ,जिस कारण की सत्ता नहीं है , वह बांध कैसे सकेगा ? पांचो तत्त्व और उनके गन केवल दीखते हैं , उनकी वास्तविक सत्ता नहीं है। ब्रह्मण ! आत्म - शक्ति अचिन्त्य , शुद्ध - स्वरुप और निर्लेप है। वह केवल अनुमान से जानी जाती है ; कभी प्रत्यक्ष नहीं होती। फिर वह बन्धन में कैसे आयेगी ?
श्री शुकदेव जी ने कहा - महाराज ! मेरा ह्रदय इस सन्देह से अलग नहीं हो पाता कि जिसके चारों ओर माया का विस्तार है , उसकी स्पृहा कैसे शान्त हो सकती है ? वह मुक्त कैसे हो सकता है ? राजन ! धन की , राज्य सुख की तथा संग्राम में विजय पाने की अभिलाषा आपके ह्रदय में बानी है। जीवन मुक्त कैसे हुए ? चोर में चोर बुद्धि तथा तपस्वी में साधु - बुद्धि रखते हैं। अपने और पराये का ज्ञान आपको है ही , फिर आप में ? राजन ! जब मेरे मन में वैराग्य का उदय हो गया और सभी सुख - दुःख आदि गुण शान्त हो गये , तब घर , धन और सुन्दर स्त्री से मुझे क्या प्रयोजन ? आप अनेक आसक्तियों से युक्त तरह - तरह की बातें सोंचते रहते हैं और कहते हैं कि मैं जीवन्मुक्त हूँ ! मुझे तो आपका यह व्यवहार दम्भ ही जान पड़ता है। राजन ! आपके कुल में उत्पन्न होनेवालों का ' विदेह ' नाम ही रख दिया जाता है ! जैसे किसी मुर्ख का नाम ' विद्याधर ' , अंधे का नाम ' दिवाकर ' और दरिद्र का नाम ' लक्ष्मीधर ' रख दिया जाय , तो उनके वे नाम अनर्थक ही हैं।
जनक जी ने कहा -- द्विजवर ! गुरु व्यास जी एक आदरणीय पुरुष हैं। माना , तुम उनके पास न रहकर वन में जाना चाहते हो। वहां भी तो मृगों से तुम्हारा सम्बन्ध होगा ही। यह धरती सम्बन्धहीन नहीं है। जब पञ्च - महाभूतों भी स्थान रिक्त नहीं है , तब तुम वहां निस्संग कैसे रह सकोगे ? मुने ! भोजन की चिंता जब कभी साथ छोड़ नहीं सकती , फिर तुम निश्चिन्त कैसे हुए ? जिस प्रकार वन में रहते हुए भी तुम्हे अपने दण्ड और मृग - चर्म की चिन्ता बानी रहती है , वैसे ही मुझे अपने राज्य की चिंता है। तब हम दोनों की चिंता समान रही या नहीं ? बल्कि दूर देश में जाने के कारण तुम्हारा मन अधिक चिन्तित रहेगा। मेरे मन में तो सन्देह की कल्पना भी नहीं उठती। जगत मुझे ( आत्म - शक्ति को ) बांध नहीं सकता - मैंने यह निश्चित धारणा बना ली है। अतः मैं सभी समय सजग रहता हूँ। ' मैं जगज्जाल में फँस गया हूँ ' यह शंका तुम्हे निरन्तर दुःखार्णव में डुबाया करती है। इसलिए अब सजग हो जाओ।
जनक जी का उपर्युक्त कथन सुनकर शुकदेव जी का मन मुग्ध हो गया। शंकाये नष्ट हो गयी। वे समझ गए कि जीवन्मुक्त होने के लिए जगज्जननी के संसार से भागना नहीं है। अपितु यहीं रहकर , सजग होकर , सतर्क होकर , सहज रूप में सभी कर्मो को करते हुए जीवन्मुक्त हो सकते हैं। जनक जी से आज्ञा लेकर वे व्यासाश्रम को वापस चल पड़े।