मंगलवार, 13 जनवरी 2015

364 . दर मैं अपना खुला रखूं

३६४ 
दर मैं अपना खुला रखूं 
भला अब किसके वास्ते 
जिन्हे आना था घर मेरे 
वो तो दूसरों के घर गये 
तरपते अरमान और टूटते ख्याल 
फितरत में मिले हैं दिल को 
दिन वो बहुरेंगे 
उनके साथ जो थे खेले 
ना जाने कब के वो गुजर गए 
कमर कस कर 
उठा था एक बार ये मन 
चढ़ी हुई खून की गर्मी 
ना जाने कब सब के सब उत्तर गए 
वादों के झोंकों ने 
ना जाने कब के सपनो के महल तोड़ गए 
उजड़े पेड़ में जो 
नव किसलय खिलाये थे मैंने 
ना जाने कब के दामन से मेरे बिखर गए 
राहे ' सवेरा ' के जिंदगी में 
शामें तन्हाई 
ना जाने कब के आई और समाती चली गयी 
यादों के तारों का शिरा 
मन के बंधन से 
ना जाने कैसे दृढ होते चले गए 
शामें वैसे ही रहीं 
पर ना जाने क्यों 
जिंदगी के अर्थ बदलते चले गए !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १५ - ०९ - १९८४ 

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