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ऐ जीवन तूं पतझर
या तेरी जमीं ही है बंजर ?
चलते हैं जिसपर केवल खंजर
ओढ़े हुई है फटी चादर
मज़बूरी ही है क्या तेरा नाम ?
क्या केवल तूं है विवशता ?
अब भी तूं अपने को जान
क्या है तेरी आवश्यकता ?
ऐ जीवन तूं पतझर
तेरी कीमत है अनमोल
अब भी अपने को पहचान
क्यों देती है विष घोल ?
ऐ जीवन तूं पतझर
किधर है ख्याल तेरा तूं कंहाँ है ?
सुन ' सवेरा ' से
यह इबादत का बंया है
कर ले इन्साफ तूं अपने से
हर जगह तेरा ही तो महकमा है
गूंज उठेगी कहकहा
हर और एक ही वाक्या है
ऐ जीवन तूं पतझर !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११-०१ - १९८०
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