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धनतेरस - श्री लक्ष्मी पूजनोत्सव
समुद्र - मंथन के अंतिम दिन यानी प्रकाश पर्व दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को पूरे देश में धनतेरस मनाने की परंपरा है ! इस दिन कोई वस्तु - विशेषकर बर्तन या धातु विशेषकर सोना - चांदी खरीदना सगुन होता है ! इस दिन भगवान विष्णु की पूजा किसी लालच में नहीं , बल्कि शुद्ध भाव से करनी चाहिए !
लक्ष्मी से स्थूल तात्पर्य है - अर्थ !
लक्ष्मी - पूजा वस्तुतः अर्थ का पर्व है ! गणेश , दीप - पूजन और गौ द्रव पूजन इस पर्व की विशेषतायें हैं ! गोधूलि लग्न में पूजा प्रारम्भ करके महानिशि काल तक महालक्ष्मी के पूजन को जारी रखा जाता है !
माँ महालक्ष्मी को आठ चीजें बेहद प्रिय - १ - एक आँख वाला श्रीफल ! २ - शंख ! ३ - कौड़ी ! ४ - कमल गट्टा !
५ - चाँदी ! ६ - श्रीयंत्र ! ७ - धनकुबेर ! ८- मोती !
वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरुप अत्यंत व्यापक रहा है ! ऋग्वेद की ऋचाओं में ' श्री ' का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूप में हुआ है ! अथर्वेद में पृथ्वी सूक्त में ' श्री ' की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहते हैं " श्रिया माँ धेहि " अर्थात मुझे श्री की प्राप्ति हो ! श्रीसूक्त में ' श्री' का आवाहन जातवेदस के साथ हुआ है ! ' जातवेदोमआवह ' जातवेदस अग्नि का नाम है ! अग्नि की तेजस्विता तथा श्री की तेजस्विता में भी साम्य है !
विष्णु पुराण में लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में की गई है - श्री रूप और लक्ष्मी रूप ! श्रीदेवी को कहीं - कहीं भू देवी भी कहते हैं ! इसी तरह लक्ष्मी के दो स्वरुप हैं ! सच्चिदानन्दमयी लक्ष्मी श्री नारायण के ह्रदय में वास करती हैं ! दूसरा रूप है भौतिक या प्राकृतिक संपत्ति की अधिष्टात्री देवी का ! यही श्री देवी या भूदेवी हैं ! सब संपत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्वमयी है ! इनके पास लोभ , मोह , काम , क्रोध और अहंकार आदि दोषों का प्रवेश नहीं है ! यह स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी , राजाओं के पास राजलक्ष्मी , मनुष्यों के गृह में गृहलक्ष्मी , व्यापारियों के पास वाणिज्यलक्ष्मी और युद्ध विजेताओं के पास विजयलक्ष्मी के रूप में रहती हैं !
अष्टसिद्धि और नवनिधि की देवी श्रीलक्ष्मी भौतिक मनोकामनाओं को पूर्ण करती हैं ! कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को जब सूर्य और चन्द्र दोनों तुला राशि में होते हैं , तब दीपावली का त्योहार मनाया जाता है ! इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंगों पर शयन - गामी होते हैं और श्रीलक्ष्मी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं !
भारतीय पद्धति के अनुसार आराधना , उपासना व् अर्चना में आधिभौतिक , आध्यात्मिक और आधिदैविक - इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है ! दीपावली में सोना - चांदी आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता है ! घरों को दीपमाला आदि से सुसज्जित करना लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरुप की शोभा बढ़ाने का उपक्रम है !
देवी की जितनी भी शक्तियां मानी गयी हैं , उन सब की मूल भगवती लक्ष्मी ही हैं ! ये ही सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं ! लक्ष्मी नित्य सर्वव्यापक हैं ! पुरुषवाची भगवान हरी हैं और स्त्रीवाची लक्ष्मी ! इनसे इतर कोई नहीं हैं !
सामान्यतः दीपावली पूजन का अर्थ लक्ष्मी पूजा से लगाया जाता है , किन्तु इसके अंतर्गत गणेश गौरी , नवग्रह , षोडशमातृका , महालक्ष्मी , महाकाली , महासरस्वती , धनकुबेर , तुला और मान की भी पूजा होती है ! मान्यता है कि ये सभी श्रीलक्ष्मी के साथ अंग - सदृश होते हैं !
हिरण्यवर्णां हरिणी सुवर्णरजतस्रजाम ! चन्द्राम हिरण्मयीं , लक्ष्मी जातवेदो मा वह !
ऋग्वेद में ऐश्वर्य और समृद्धि के लिए वैदिक उपासना का विधिवत वर्णन है ! विश्व में प्राचीन सिंधु सभ्यता की खुदाई में दीप लक्ष्मी की खंडित मूर्तियां मिली थी , जो तत्कालीन भारतीय सम्पन्नता और श्री - वैभव की सूचक है ! भारतीय संस्कृति में श्रीलक्ष्मी के अनेक रूप मिलते हैं ! गौ , घोड़े , हाथी , रथ आदि को लक्ष्मी की मान्यता प्राप्त है ! गौ कामधेनु है ! घोड़े अश्वशक्ति , हाथी गजलक्ष्मी और रथ वाहनश्री हैं ! ये क्रमशः कृषि , कल - कारखाने , उद्दोग - धंधे और परिवहन व्यापार के प्रतीक हैं ! : व्यापारे वसति लक्ष्मी " !
' अहम राष्ट्र संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथम यज्ञियानाम ! तां मा देवा व्यदधुः पुरूत्रा मुरिस्थात्रां भुर्यावेशयन्तीम् ! श्रीलक्ष्मी कहती हैं - मैं ही जगत की लक्ष्मी और धन ऐश्वर्य की देवी हूँ !
समस्त जगत में श्रीलक्ष्मी का राज है ! रूद्र , वसु , वरुण , इंद्र , अग्नि आदि रूपों में श्रीलक्ष्मी शोभायमान होती हैं ! वे सभी भूतों में लक्ष्मी के रूप में विराजमान रहती हैं ! ' या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता ' ! सूर्य में उषा लक्ष्मी है , जिसे यूनानी भाषा में अरोरा कहा जाता है ! चन्द्र में ज्योत्सना लक्ष्मी है , जिसे यूनान में डायना कहते हैं ! सागर में नीरजा लक्ष्मी हैं , जिसे निरीड कहते हैं और पृथ्वी में वसुमती रत्नगर्भा के रूप में लक्ष्मी निवास करती हैं ! वसु का अर्थ है धन ! पृथ्वी रत्नो की खान है ! रत्न - गर्भा है ! वह स्वर्ण - गर्भा के साथ - साथ रजत गर्भा और अयस गर्भा है ! विश्व की सारी नारियों में ये रूप गुण और सौंदर्य पाये जाते हैं ! समस्त विश्व की नारियां श्रीलक्ष्मी की संतति है , जो अपनी संस्कृति - सभ्यता और परंपरा का निर्वहन कर रही हैं !
नारी प्रकृति की अद्भुत रचना है ! वह लक्ष्मी की अंश है ! जहाँ लक्ष्मीरूपा नारियां सम्मानित होती हैं , वहां क्षीर सागर से लक्ष्मी प्रकट होती हैं और ओलपिंक पर्वत से रीया , मेयो , लारा सिरिन , प्रासग्रीन आदि अप्सराएं आ जाती हैं !
ईरान में पैरिक देव जाति की नारियां जल लक्ष्मी कहलाती थी ! फ़ारसी में पैरिक परी है , जिसे अप्सरा कहा जाता है ! अप जल का बोधक है , जिसका अर्थ होता है जल में बिहार करने वाली !
समुद्र मंथन से जो चौदह रत्न निकले थे , उनमे श्रीलक्ष्मी के साथ अप्सरा भी थीं ! अप्सरा आधुनिक अरब , ईराक , ईरान की नारियां हैं ! यानि कि वे श्रीलक्ष्मी की संताने हैं ! श्वेतवर्ण नारी यूरोप की पहचान है ! यूरोप में एक श्वेता लक्ष्मी थीं !
यूरोप का नामकरण युरोपा से हुआ है ! युरोपा वैदिकी रूपसी उर्वशी थी ! स्वर्ग की लक्ष्मी शची है , जिन्हे यूनान में हेरा कहा जाता है ! वहां राष्ट्रिय समृद्धि की सूचक है !
भारतीय नारियां श्रीलक्ष्मी को अपना आदर्श मानती हैं ! उनके श्रृंगार , परिधान और रूप सज्जा का अनुकरण करती हैं ! यूरोप की नारियां अपनी सौंदर्य देवी वीनस , निरिड और ओसियाड के परिवेश को अपनाती हैं ! इतालवी युवतियां फेमिना की तरह सजती - संवरती हैं ! इस प्रकार पुरे विश्व में श्रीलक्ष्मी की सौंदर्य - सत्ता हैं !
आभूषण - विवाह के समय कन्या सोने के हार , चांदी की माला और अन्य आभूषणों को पहनकर लक्ष्मी स्वरूपा होती हैं , क्योंकि श्रीलक्ष्मी को स्वर्ण और रजत के अलंकार प्रिय होते हैं ! लोक - परंपरा के अनुसार स्वर्ण में श्रीलक्ष्मी निवास करती हैं ! दीपावली के दिन लोग सोने - चांदी की पूजा कर श्रीलक्ष्मी का आवाहन करते हैं !
परिधान - विवाह के समय लक्ष्मी जी ने लाल परिधान यानी चुनरी पहनी थी ! विष्णु जी ने पीला वस्त्र धारण किया था ! आज भी लोक परंपरा में कन्या और वर को क्रमशः लाल और पीला परिधान धारण किये हुए देखा जा सकता है !
यूरोप की नारियां श्वेत रंग का परिधान पहनती हैं ! श्वेत रंग शांति का सूचक है ! आशय यह कि विवाहोपरांत दाम्पत्य जीवन में शांति बनी रहे !
अरब , ईराक , ईरान की नारियां हरे रंग की वस्त्र पहनती हैं जो मंगल का प्रतीक है !
वाहन - गृह देवी को ज्योतिर्लक्ष्मी का दर्जा मिला है ! वैदिकी श्रीलक्ष्मी के वाहनों का वर्णन ऋग्वेद में है और उसकी परंपरा का पालन आज भी लोकजीवन में पाया जाता है ! बारात में गृहलक्ष्मी की विदाई के लिए हाथी , घोडा , रथ , पालकी का उपयोग होता है ! आज रथ के स्थान पर मोटरकार , बग्घी आदि का प्रचलन है ! श्रीलक्ष्मी के आगे पीछे घोड़े और रथ होते हैं ! हाथी का नाद सुनकर लक्ष्मी प्रसन्न होती है !
राजलक्ष्मी के लिए गज , अश्व , कोष , रथ , सैन्य आदि नाम जुड़े हुए हैं ! प्राचीन यूनान में नाइट ( अश्वलक्ष्मी ) की पूजा होती थी ! नारियां घोड़े पर सवार होकर नाइट बनती थीं ! नाइट का मुख घोड़े का है और शेष अंग नारी का ! श्रीलक्ष्मी का मुख चन्द्रमा के समान है ' चन्द्रा प्रभासां - यशसा ज्वलतीम् ' ! वह कमल धारण करती हैं ! ' पद्मे स्थित पद्म वर्णा ' !
यूरोप में डायना ( चन्द्रलक्ष्मी ) की पूजा होती थी ! ब्रितानी युवतियां अपने मुख का लेपन करती हैं , ताकि वे डायना का स्वरुप बनें !
श्रीलक्ष्मी लाल कमल धारण करती हैं ! लाल कमल लक्ष्मी का प्रतीक है ! लाल कमलों से आच्छादित सरोवरों को लक्ष्मी का जल महल मानकर दीपदान किया जाता है ! रंगोली में कमल को उकेरा जाता है !
फ़्रांस की फ़्लोरा रंग - बिरंगे फूलों की देवी थीं ! एथेंस की विद्दा देवी मिनर्वा जहाँ अंतर्ध्यान हुई थीं , वहां जैतून उग आया था ! यूनानी नारियां जैतून के फूलों से सजकर मिनर्वा सदृश होती हैं !
दीपावली
दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है ! ह्रदय में भरे हुए अज्ञान और संसार में फैले हुए अंधकार का शमन करने वाला दीपक देवताओं की ज्योतिर्मय शक्ति का प्रतिनिधि है ! इसे भगवान का तेजस्वी रूप माना जाता है ! बीच में एक बड़ा घृत दीपक और उसके चारों ओर ११ - २१ अथवा इससे भी अधिक दीपक प्रज्वलित करें ! दीप जलाने का तात्पर्य है - अपने अंतर को ज्ञान के प्रकाश से भर लेना , जिससे ह्रदय और मन जगमगा उठे ! अंधकार से सतत प्रकाश की ओर बहते रहना ही दीपावली की प्रेरणा है ! वैदिक काल में यज्ञ एक तरह से सांस्कृतिक समारोह थे ! यज्ञ साधारण भी होते थे और असाधारण भी ! कुछ यज्ञों ( अश्वमेघ - राजसूय ) को तो मात्र राजा महाराजा ही कर सकते थे , लेकिन कुछ यज्ञों का संपादन नियमित रूप से आर्य गृहस्थों द्वारा किया जाता था ! गोपद ब्राह्मण के मुताबिक इन यज्ञों में से अग्न्याधान और अग्निहोत्र प्रतिदिन के यज्ञ थे ! अमावस्या और पूर्णिमा के दिन दशपूर्णमास यज्ञ होते थे ! फाल्गुन पूर्णिमा , आषाढ़ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास यज्ञ किये जाते थे ! उत्तरायण - दक्षिणायन के आरम्भ में जो यज्ञ होते थे वे अग्रहायण नवसस्थिष्टि यज्ञ कहलाते थे , जो कालांतर में दीपावली का त्यौहार बन गए ! यज्ञ पर्वों में ही संपन्न होते थे ! पर्व जोड़ या संधि को कहते हैं ! यह संधि पर्व ऋतू और काल संबंधी हुआ करती थी ! सायं - प्रातः , संधि , पक्ष संधि , मास संधि , ऋतू संधि , चातुर्मास संधि , अयन संधि , पर यज्ञ होते थे ! ये संधियाँ पर्व कहाती थी ! यज्ञ समाप्ति पर अवभृथ स्नान होता था ! अब यज्ञों की परिपाटी तो लगभग बंद हो गई हैं , लेकिन पर्वों पर विशेष तीर्थों पर स्नान ध्यान अब भी धर्म - कृत्य माना जाता था ! वैदिक - काल में उत्तरायण और दक्षिणायन का विशद विचार था ! यजुर्वेद में इसका विस्तार से वर्णन है ! दीपावली परिवर्तन से संबंधित त्यौहार है ! इस समय सूर्य दक्षिणायन होते हैं ! साथ ही नयाशस्य धान्य आता है ! इसलिय खील खाई जाती है , तथा दीपोत्सव मनाया जाता है ! दीपावली , जो वास्तव में अयन यज्ञ था , द्रविड़ और आग्न्येय संस्कृतियों से मिलकर श्रीलक्ष्मी का त्यौहार बन गया !
जहाँ होती स्वक्षता - सफाई और पवित्रता श्री लक्ष्मी वहीँ जाती ! घर - समाज - देश चारों ओर हो स्वक्षता और सफाई तो श्रीलक्ष्मी दौड़ी चली आयेगी !
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कोजागरा
ई पावनि आश्विन शुक्ल पूर्णिमा के मनाओल जाइत अछि ! एहि दिन लोक अपन घर आँगन नीक क नीपैत छैथि ! साँझ में दोआरि परसँ भगवतीक चीनवार तक एकटा अरिपन देल जाइत अछि पिठारसँ तहन भगवतीकेँ लोटाक जलसँ घर करैत छथि ! भगवतीक चिनवार पर कमलक अरिपन द ओहि पर सिंदूर लगा एकटा लोटामें जल भरि राखि ओहि पर आमक पल्लव द तामक सराइमे एकटा चानीक रुपैया राखि ताहि पर लक्ष्मी पूजा करैत छथि ! प्रसाद में अँकुरी , पान , मखान , केरा , मिसरी तथा नारियल भोग लगबैत छथि ! तहन प्रसाद बाँटल जाइछ ! ई कार्य घरक जे प्रसद्धि महिला से करैत छथि ! भगवती घर करक मन्त्र - " अन धन लक्ष्मी घर आउ ! दलिद्रा बाहर जाउ !! "
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९ - सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि !
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी !!
माँ दुर्गाजी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है ! ये सभी प्रकारकी सिद्धियों को देनीवाली हैं ! मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा , महिमा , गरिमा , लघिमा , प्राप्ति , प्राकाम्य , ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं ! ब्रह्मवैवर्त्यपुराण के श्रीकृष्ण् - जन्मखण्ड में यह संख्या अट्ठारह बतायी गयी है ! इनके नाम इस प्रकार हैं -
१ - अणिमा २ - लघिमा ३ - प्राप्ति ४ - प्राकाम्य
५ - महिमा ६ - ईशित्व , वाशित्व ७ - सर्वकामावसायिता ८ - सर्वगत्व ९ - दूरश्रवण १० - परकायप्रवेशन ११ -वाकसिद्धि १२ - कल्पवृक्षत्व
१३ - सृष्टि सृष्टि १४ - संहारकरणसामर्थ्य १५ - अमरत्व १६ -सर्वन्यायकत्व १७ - भावना १८ - सिद्धि
माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं ! देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था ! इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था ! इसी कारण वह लोक में ' अर्धनारीश्वर ' नाम से प्रसिद्ध हुए ! माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं ! इनका वाहन सिंह है ! ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं ! इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में चक्र , ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है ! नवरात्र - पूजन के नवें दिन इनकी उपासना की जाती है ! इस दिन शास्त्रीय विधि - विधान और पूर्ण निष्ठां के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ! सृष्टि में कुछ भी उसके लिये अगम्य नहीं रह जाता ! ब्रह्माण्ड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमे आ जाती है !
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह माँ सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न करे ! उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो ! इनकी कृपा से अत्यंत दुःख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है !
नव दुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं ! अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा - उपासना शास्त्रीय विधि - विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नवें दिन इनकी उपासना में प्रवृत होते हैं ! इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है ! लेकिन सिद्धिदात्री माँ के कृपा पात्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है , जिसे वह पूर्ण करना चाहे ! वह सभी सांसारिक इक्षाओं , आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूपसे माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा - रस - पीयूषका निरन्तर पान करता हुआ विषय - भोग - शून्य हो जाता है ! माँ भगवती का परम सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है ! इस परमं पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती ! माँ के चरणों का यह सानिध्य प्राप्त करने के लिए हमें निरन्तर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करनी चाहिये ! माँ भगवती का स्मरण , ध्यान , पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परमशान्तिदायक पद की ओर ले जाने वाला है !
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८ - महागौरी
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है ! इनका वर्ण पूर्णतः गौर है ! इस गौरता की उपमा शंख , चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है ! इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गयी है - ' अष्टवर्षा भवेद गौरी ' ! इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं ! इनकी चार भुजाएँ हैं ! इनका वाहन वृषभ है ! इनके उपरके दाहिने हाथ में अभय - मुद्रा और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है ! ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे के बायें हाथ में वर - मुद्रा है ! इनकी मुद्रा अत्यंत शान्त है !
अपने पार्वती रूप में इन्होंने भगवान शिव को पति - रूप में प्राप्त करने के लिये बड़ी कठोर तपस्या की थी ! इनकी प्रतिज्ञा थी की ' व्रियेहं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात् ' ( नारद पाँचरात्र ) गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार भी इन्होने भगवान शिवके वरण के लिये कठोर संकल्प लिया था -
जन्म कोटि लगि रगर हमारी !
बरउँ संभु न त रहउँ कुँआरी !!
इस कठोर तपस्या के कारण इनका शरीर एकदम काला पड़ गया ! इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुष्ट होकर जब भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विधुत प्रभा के समान अत्यन्त कान्तिमान - गौर - हो उठा ! तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा !
दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है ! इनकी शक्ति अमोध और सद्यः फलदायिनी है ! इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं ! उसके पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं ! भविष्य में पाप - संताप , दैन्य - दुःख उसके पास कभी नहीं आते ! वह सभी प्रकारसे पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है !
माँ महागौरी का ध्यान - स्मरण , पूजन - आराधन भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है ! हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिये ! इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है ! मनको अनन्यभावसे एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिये ! ये भक्तों का कष्ट अवश्य ही दूर करती हैं ! इनकी उपासना से आर्तजनों के असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं ! अतः इनके चरणों की शरण पाने के लिए हमें सर्वविध प्रयत्न करना चाहिये ! पुराणों में इनकी महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है ! ये मनुष्य की वृतियों को सत की ओर प्रेरित करके असत का विनाश करती हैं ! हमें प्रपत्तिभाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिये !
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७ - माँ कालरात्रि
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता !
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी !!
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा !
वर्धन्मूर्धवजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी !!
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है ! इनके शरीर का रंग घने अन्धकारकी तरह एकदम काला है ! सिरके बाल बिखरे हुए हैं ! गले में विद्धुत की तरह चमकनेवाली माला है ! इनके तीन नेत्र हैं ! ये तीनो नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं ! इनसे विध्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं ! इनकी नासिकाके श्वास - प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं ! इनका वाहन गर्धव - गदहा हैं ! ऊपर उठे हुए दाहिनी हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं ! दाहिनी तरफ का नीचेवाले हाथ अभयमुद्रा में हैं ! बायीं तरफ के उपरवाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचेवाले हाथ में खड्ग है !
माँ कालरात्रि का स्वरुप देखने में अत्यंत भयानक है , लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देनेवाली हैं ! इसी कारण इनका एक नाम शुभंकरी भी है ! अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है !
दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है ! इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है ! उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है ! इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरुप में अवस्थित रहता है ! उनके साक्षात्कारसे मिलनेवाले पुण्य का वह भागी हो जाता है ! उसके समस्त पापों - विघ्नों का नाश हो जाता है ! उसे अक्षय पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है !
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करनेवाली हैं ! दानव , दैत्य , राक्षस , भूत , प्रेत आदि इनके स्मरणमात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं ! ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करनेवाली हैं ! इनके उपासक को अग्नि - भय , जल - भय , जंतु - भय , शत्रु - भय , रात्रि - भय आदि कभी नहीं होते ! इनकी कृपा से वह सर्वथा भय - मुक्त हो जाता है !
माँ कालरात्रि के स्वरुप - विग्रह को अपने ह्रदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिये ! यम , नियम , संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिये ! मन , वचन , काया की पवित्रता रखनी चाहिये ! वह शुभंकरी देवी हैं ! उनकी उपासना से होनेवाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती ! हमें निरंतर उनका स्मरण , ध्यान और पूजन करना चाहिये !
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६ - कात्यायनी
चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना !
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवधातिनि !!
माँ दुर्गा जी के छटवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है ! इनका कात्यायनी नाम पड़ने की कथा इस प्रकार है - कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे !उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए ! इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे ! इन्होने भगवती पराम्बाकी उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी ! उनकी इक्षा थी कि माँ भगवती उनके घर पुत्रीके रूपमें जन्म लें ! माँ भगवतीने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी !
कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा , विष्णु , महेश तीनोंने अपने - अपने तेजका अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया ! महर्षि कात्यायनने सर्वप्रथम इनकी पूजा की ! इसी कारण से यह कात्यायनी कहलायीं !
ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के वहाँ पुत्री रूपसे उत्पन्न भी हुई थीं ! आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी , अष्टमी तथा नवमी तक - तीन दिन - इन्होने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था !
माँ कात्यायनी अमोध फलदायिनी हैं ! भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए व्रज की गोपियों ने इन्हींकी पूजा कालिंदी - यमुना के तट पर की थी ! ये व्रजमण्डल की अधिष्ठात्री देवी के रूपमें प्रतिष्ठित हैं ! इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है ! इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला और भास्वर है ! इनकी चार भुजाएं हैं ! माताजी का दाहिनी तरफ का उपरवाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचेवाले वरमुद्रामें है ! बायीं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचेवाले हाथ में कमल - पुष्प सुशोभित है ! इनका वाहन सिंह है !
दुर्गापूजा के छटवें दिन इनके स्वरुप की उपासना की जाती है ! उस दिन साधक का मन ' आज्ञा ' चक्र में स्थित होता है ! योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है ! इस चक्र में स्थित मनवाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है ! परिपूर्ण आत्मदान करनेवाले ऐसे भक्त को सहज भाव से माँ कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं ! माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ , धर्म , काम , मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है ! वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है ! उसके रोग , शोक , संताप , भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं ! जन्म - जन्मान्तर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है ! इनका उपासक निरन्तर इनके सान्निध्य में रहकर परमपद का अधिकारी बन जाता है ! अतः हमें सर्वोतोभावेन माँ के शरणागत होकर उनकी पूजा उपासना के लिए तत्पर होना चाहिये !
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५ - स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्व्या !
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी !!
माँ दुर्गाजी के पाँचवें स्वरुप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है ! ये भगवान स्कन्द ' कुमार कार्तिकेय ' नाम से भी जाने जाते हैं ! ये प्रसिद्ध देवासुर - संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे ! पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है ! इनका वाहन मयूर है ! अतः इन्हें मयूरवाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है !
इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस पांचवें स्वरुप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है ! इनकी उपासना नवरात्रि - पूजा के पांचवें दिन की जाती है ! इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है ! इनके विग्रह में भगवान स्कन्द जी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं ! स्कन्दमातृस्वरूपणी देवी की चार भुजाएं हैं ! ये दाहिनी तरफ की ऊपरवाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हुए हैं और दाहिनी तरफ की नीचेवाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है उसमे कमल - पुष्प हैं ! बायीं तरफ की ऊपरवाली भुजा वरमुद्रा में तथा नीचेवाली भुजा जो ऊपरकी ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुईं हैं ! इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है ! ये कमल के आसनपर विराजमान रहती हैं ! इसी कारण से इन्हें पदमासना देवी भी कहा जाता है ! सिंह भी इनका वाहन है !
नवरात्र पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है ! इस चक्र में अवस्थित मनवाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है ! वह विशुद्ध चैतन्य स्वरुप की ओर अग्रसर हो रहा होता है ! उसका मन समस्त लौकिक , सांसारिक , मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरुप में पूर्णतः तल्लीन होता है ! इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिये ! उसे अपनी समस्त ध्यान - वृतियों को एकाग्र रखते हुए साधन के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए !
माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं ! इस मृत्यु लोक में ही इसे परम शान्ति और सुख का अनुभव होने लगता है ! उसके लिए मोक्षका द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है ! स्कन्दमाता की उपासना से बालरूप स्कन्दभगवान की उपासना भी स्वयमेव हो जाती है ! यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है , अतः साधक को स्कन्दमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ! सूर्यमण्डल की अधिष्टात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कान्ति से संपन्न हो जाता है ! एक अलौकिक प्रभामण्डल अदृश्यभाव से सदैव उसके चतुर्दिक परिव्याप्त रहता है ! यह प्रभामण्डल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है !
अतः हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिये ! इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है !
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४ - कूष्माण्डा
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च !
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे !
माँ दुर्गाजी के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा है ! अपनी मन्द , हलकी हंसी द्वारा अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है !
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था , चारों ओर अंधकार ही अन्धकार परिव्याप्त था , तब इन्हीं देवी ने अपने ' ईषत ' हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी ! अतः यही सृष्टि की आदि - स्वरूपा , आदि शक्ति हैं ! इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं ! इनका निवास सूर्यमण्डल के भीतर के लोक में है ! सूर्य लोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है ! इनके शरीर की कान्ति और प्रभा भी सूर्य के समान ही देदीप्यमान और भास्वर हैं ! इनके तेज की तुलना इन्हीं से की जा सकती है ! अन्य कोई भी देवी - देवता इनके तेज और प्रभाव की समता नहीं कर सकते ! इन्ही के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं ! ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है !
इनकी आठ भुजाएँ हैं ! अतः ये अष्ट भुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं ! इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु , धनु , बाण , कमल - पुष्प , अमृतपूर्ण कलश , चक्र तथा गदा हैं ! आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है ! इनका वाहन सिंह है ! संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा कुम्हड़े को कहते हैं ! बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय हैं ! इस कारण से भी ये कूष्माण्डा कही जाती हैं !
नवरात्र - पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरुप की ही उपासना की जाती है ! इस दिन साधक का मन ' अनाहत ' चक्र में अवस्थित होता है ! अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचञ्चल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरुप को ध्यान में रखकर पूजा - उपासना के कार्य में लगना चाहिए ! माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग - शोक विनष्ट हो जाते हैं ! इनकी भक्ति से आयु , यश , बल और आरोग्य की वृद्धि होती है ! माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होनेवाली हैं ! यदि मनुष्य सच्चे ह्रदय से इनका शरणागत बन जाये तो फिर उसे अत्यंत सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती हैं !
हमें चाहिए कि हम शास्त्रों - पुराणों में वर्णित विधि - विधान के अनुसार माँ दुर्गा की उपासना और भक्ति के मार्गपर अहर्निश अग्रसर हों ! माँ के भक्ति - मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है ! यह दुःख स्वरुप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है ! माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग हैं ! माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों - व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख , समृद्धि और उन्नति की ओर ले जानेवाली हैं ! अतः अपनी लौकिक - पारलौकिक उन्नति चाहनेवालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए !
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३ - चन्द्रघण्टा
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चन्द्कोपास्वकैर्युता !
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता !!
माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम ' चन्द्रघण्टा ' है ! नवरात्रि - उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन आराधन किया जाता है ! इनका यह स्वरुप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है ! इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है , इसी कारण से इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है ! इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है ! इनके दस हाथ हैं ! इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि विभूषित हैं ! इनका वाहन सिंह है ! इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्दत रहने की होती है ! इनके घण्टे की सी भयानक चाँद ध्वनि से अत्याचारी दानव - दैत्य - राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं !
नवरात्र की दुर्गा - उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्त्व है ! इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है ! माँ चन्द्रघण्टा की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं ! दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं ! ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं !
माँ चन्द्रघण्टा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं ! इनकी आराधना सद्यः फलदायी हैं ! इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती है , अतः भक्तों के कष्ट का निवारण ये अत्यंत शीघ्र कर देती हैं ! इनका वाहन सिंह है अतः इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है ! इनके घण्टे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत - बाधादि से रक्षा करती रहती हैं ! इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस घण्टे की ध्वनि निनादित हो उठती है !
दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरुप दर्शक और आराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है ! इनकी आराधना से प्राप्त होनेवाला एक बहुत बड़ा सद्गुण यह भी है कि साधक में वीरता - निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता है ! उसके मुख नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति - गुण की वृद्धि होती है ! स्वर में दिव्य अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है ! माँ चन्द्रघण्टा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं ! ऐसे साधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है ! यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखलायी नहीं देती , किन्तु साधक और उसके सम्पर्क में आनेवाले लोग इस बात का अनुभव भलीभांति करते रहते हैं !
हमें चाहिये कि अपने मन , वचन , कर्म एवं काया को विहित विधि विधानके अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चन्द्रघण्टा के शरणागत होकर उनकी उपासना - आराधना में तत्त्पर हों ! उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं ! हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिये ! उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति को देनेवाला है !
फोटो गूगल से साभार
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२ - ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू !
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिणियनुत्तमा !!
माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा स्वरुप ब्रह्मचारिणी का है ! यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है ! ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी - तप का आचरण करनेवाली ! कहा भी है - वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म - वेद , तत्व और तप ब्रह्म शब्द के अर्थ हैं ! ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरुप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है ! इनके दाहिने हाथमे जपकी माला एवं बायें हाथ में कमण्डलु रहता है !
अपने पूर्वजन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री - रूप में उत्पन्न हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होने भगवान शंकर जी को पति - रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी ! इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया ! एक हजार वर्ष उन्होंने केवल फल मूल खाकर व्यतीत किये थे ! सौ वर्षों तक केवल शाकपर निर्वाह किया था ! कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट सहे ! इस कठिन तपश्चर्या के पश्चात तीन हजार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रों को खाकर वह अहर्निश भगवान शंकर की आराधना करती रहीं ! इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रों को भी खाना छोड़ दिया ! कई हजार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार तपस्या करती रहीं ! पत्तों को भी खाना छोड़ देने के कारण उनका एक नाम अपर्णा भी पड़ गया !
कई हजार वर्षों की इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का वह पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो उठा ! वह अत्यंत ही कृशकाय हो गयीं थी ! उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मेना अत्यंत दुःखित हो उठीं !उन्होंने उन्हें उस कठिन तपस्या से विरत करने के लिए आवाज दी ' उ मा ' अरे ! नहीं , ओ ! नहीं ! तबसे देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम उमा भी पड़ गया था !
उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया ! देवता ऋषि , सिद्धिगण , मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पूर्णकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे ! अंतमे पितामह ब्रह्माजी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा - हे देवि ! आजतक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी ! ऐसी तपस्या तुम्हीं से संभव थी ! तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चतुर्दिक सराहना हो रही है ! तुम्हारी मनोकामना सर्वोतोभावेन परिपूर्ण होगी ! भगवान चंद्रमौलि शिव जी तुम्हे पति रूप में प्राप्त होंगे ! अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ ! शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं !
माँ दुर्गा जी का यह दूसरा स्वरुप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देनेवाला है ! इनकी उपासना से मनुष्यमें तप , त्याग , वैराग्य , सदाचार , संयम की वृद्धि होती है ! जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता ! माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है ! दुर्गापूजा के दूसरे दिन इन्हींके स्वरुप की उपासना की जाती है ! इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है ! इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है !
साभार - गूगल
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माँ दुर्गाजी इस सृष्टि की आदि शक्ति हैं ! पितामह ब्रह्माजी , भगवान विष्णु और भगवान शंकरजी उन्हीकी शक्ति से सृष्टि की उत्पत्ति , पालन पोषण और संहार करते हैं ! अन्य देवता भी उन्हीकी शक्तिसे शक्तिमान होकर सारे कार्य करते हैं ! माँ दुर्गाजी के नव रूप हैं ! उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं ----
१ - शैलपुत्री
२ - ब्रम्ह्चारणी
३ - चंद्रघंटा
४ - कुष्मांडा
५ - स्कंदमाता
६ - कात्यायनी
७ - कालरात्रि
८ - महागौरी
९ - सिद्धिदात्री !
माँ दुर्गाजी द्वारा ये नव रूप धारण किये जानेके विविध हेतु हैं ! दुर्गापूजाके अवसरपर इन नव रुपोंकी पूजा - उपासना विधि - विधानके साथ की जाती है ! हमें माँ के इन नव रुपोंसे परिचित होना चाहिए ! इन रुपोंके पीछे निहित तात्विक अवधारणाओंका परिज्ञान हमारे धार्मिक , सांस्कृतिक , सामाजिक , विकासके लिए अपरिहार्य रूपसे आवश्यक है !
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१ - शैलपुत्री
वन्दे वांछितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम !
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् !!
माँ दुर्गा अपने पहले स्वरुप में " शैलपुत्री " के नाम से जानी जाती हैं ! पर्वतराज हिमालयके वहाँ पुत्रीके रूपमे उत्पन्न होनेके कारण इनका यह " शैलपुत्री " नाम पड़ा था ! वृषभ - स्थिता इन माताजीके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल - पुष्प सुशोभित हैं ! यही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं !अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं ! तब इनका नाम सती था ! इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था ! एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया ! इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना - अपना यज्ञ - भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया ! किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यग में निमंत्रित नहीं किया ! सती ने जब सुना की हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं , तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा ! अपनी यह इक्षा उन्होंने शंकर जी को बतायी ! सारी बातों पर विचार करनेके बाद उन्होंने कहा - " प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं ! अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है ! उनके यज्ञ - भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं , किन्तु हमें जान बूझकर नहीं बुलाया है ! कोई सूचनातक नहीं भेजी है ! ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेष्कर नहीं होगा ! शंकर जी के इस उपदेशसे सती का प्रबोध नहीं हुआ ! पिता का यज्ञ देखने , वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी ! उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जानेकी अनुमति दे दी !
सती ने पिता के घर पहुँच कर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात - चीत नहीं कर रहा है ! सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं ! केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया ! बहनो की बातों में व्यंग और उपहास के घाव भरे हुए थे ! परिजनों के इस व्यव्हार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा ! उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है ! दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे !यह सब देख कर सती का ह्रदय क्षोभ , ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा ! उन्होंने सोंचा भगवान शंकर जी की बात न मान , यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है !
वह अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं ! उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जला कर भस्म कर दिया ! व्रजपात के समान इस दारुण - दुःखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया !
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया ! इस बार वह ' शैलपुत्री ' नाम से विख्यात हुई ! पार्वती , हेमवती भी उन्ही के नाम हैं ! उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीने हेमवती स्वरुप से देवताओं का गर्व - भंजन किया था !
' शैलपुत्री ' देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ ! पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्धांग्नी बनी ! नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं ! नवरात्र - पूजन में प्रथम दिवस इन्ही की पूजा और उपासना की जाती है ! इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं ! यहीं से उनकी योगसाधना का प्रारम्भ होता है ! ----------- साभार