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५ - स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्व्या !
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी !!
माँ दुर्गाजी के पाँचवें स्वरुप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है ! ये भगवान स्कन्द ' कुमार कार्तिकेय ' नाम से भी जाने जाते हैं ! ये प्रसिद्ध देवासुर - संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे ! पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है ! इनका वाहन मयूर है ! अतः इन्हें मयूरवाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है !
इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस पांचवें स्वरुप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है ! इनकी उपासना नवरात्रि - पूजा के पांचवें दिन की जाती है ! इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है ! इनके विग्रह में भगवान स्कन्द जी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं ! स्कन्दमातृस्वरूपणी देवी की चार भुजाएं हैं ! ये दाहिनी तरफ की ऊपरवाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हुए हैं और दाहिनी तरफ की नीचेवाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है उसमे कमल - पुष्प हैं ! बायीं तरफ की ऊपरवाली भुजा वरमुद्रा में तथा नीचेवाली भुजा जो ऊपरकी ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुईं हैं ! इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है ! ये कमल के आसनपर विराजमान रहती हैं ! इसी कारण से इन्हें पदमासना देवी भी कहा जाता है ! सिंह भी इनका वाहन है !
नवरात्र पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है ! इस चक्र में अवस्थित मनवाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है ! वह विशुद्ध चैतन्य स्वरुप की ओर अग्रसर हो रहा होता है ! उसका मन समस्त लौकिक , सांसारिक , मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरुप में पूर्णतः तल्लीन होता है ! इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिये ! उसे अपनी समस्त ध्यान - वृतियों को एकाग्र रखते हुए साधन के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए !
माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं ! इस मृत्यु लोक में ही इसे परम शान्ति और सुख का अनुभव होने लगता है ! उसके लिए मोक्षका द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है ! स्कन्दमाता की उपासना से बालरूप स्कन्दभगवान की उपासना भी स्वयमेव हो जाती है ! यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है , अतः साधक को स्कन्दमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ! सूर्यमण्डल की अधिष्टात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कान्ति से संपन्न हो जाता है ! एक अलौकिक प्रभामण्डल अदृश्यभाव से सदैव उसके चतुर्दिक परिव्याप्त रहता है ! यह प्रभामण्डल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है !
अतः हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिये ! इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है !
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