कालीपीठ समस्तीपुर की स्थापना की कथा
ब्रह्मलीन श्री श्री १००८ पं. कैलाश झा उर्फ़ ( लाल बाबा ) ( कालिकानन्द बाबा ) सनातन धर्म सेवी , संस्थापक काली पीठ समस्तीपुर ८४८१०१ ( १० - ०२ - १९४० ----- ११ - ०७ - २०११ ) काली पीठ के स्थापना की जड़ में बड़ी रोचक कहानी है।
सनातन धर्म सेवी पं. कैलाश झा आर एम एस में नौकरी करते थे। ई सन 1971 में उनका तबादला समस्तीपुर स्टेशन स्थित आर एम एस में हो गया । यहाँ आने की इच्छा धारणा उनकी कभी नहीं थी पर भाग्य का खेल किसे पता होता है , सो वे यहां आ गए। वे बचपन से शक्ति के परम उपासक थे। युवा अवस्था में ही इन्होने तप बल से जनकल्याण हेतु अनेक सिद्धियां अर्जित कर ली थी ! अपने सेवा काल में भी दुर्गासप्तशती पाठ की निरंतरता उनकी कभी भंग नहीं हुई यह क्रम ट्रेन ड्यूटी में भी अबाध जारी रहा ! यहां आने के कुछ वर्षों बाद अपनी नौकरी के साथ - साथ वे जितवारपुर शमसान घाट ( वर्तमान में मोक्ष धाम ) स्थित शमसानी मां काली की सेवा भी करने लगे । इनके सेवा आराधना काल में स्थान का चतुर्दिक विकास हुआ । समाज में काफी यश प्रतिष्ठा प्राप्त हुई ! कुछ अपरिहार्य कारणों से इस स्थान का उन्हें परित्याग करना पड़ा ! वहां एक अँधा भक्त बाबूजी माँ की सेवा में निःस्वार्थ भाव से रत रहता था जिसकी आँखे कालांतर में ठीक हो गयी , भक्तों का कहना है कि बाबूजी के आशीर्वाद से उसे दृष्टि प्राप्त हुई ! बाबूजी के स्थान छोड़ने के उपरांत बाबूजी ने स्थान की पूजा पाठ की जवाबदेही उसे ही सौंपी ! स्थान छोड़ने के उपरांत इनमे अगाध आस्था रखने वाला भक्त समाज घर पर ही पहुँचने लगे इससे मकान मालिक काफी असहज होने लगे परन्तु उनकी माँ की आराधना निरंतर चलती रही ! वे वर्ष 1980 में सावन पूर्णिमा को हवन यज्ञ करने के विचार से सायकिल पर हवन सामग्री रख कर स्टेशन होते हुए थानेश्वर महादेव स्थान की ओर चल पड़े । थानेश्वर स्थान के ठीक उत्तर दिशा में टुनटुनिया गुमटी के पास सिग्नल के तार में सायकिल का पैडल उलझ जाने के कारण सायकिल से उतरना पड़ा ! उसी क्षण उनके मन में ख्याल आया कि थानेश्वर स्थान पे हवन करने पर वहाँ के पंडित हो सकता है शुद्धि अशुद्धि को लेकर कुछ व्यंग करने लगें तो हवन करके भी मन को शान्ति नहीं मिलेगी ! इसी उधेड़ बुन में उनकी नजर गुमटी के पीछे रेलवे की पानी टंकी के निर्जन एकांत स्थान पर पड़ी तो उनके मन में विचार उत्त्पन्न हुआ कि क्यों न इसी स्थान पर ऊपर माँ गंगे नीचे मैं बैठ कर यहीं हवन करूँ ! यह विचार प्रबल होते ही सायकिल मोड़ टंकी के निचे हवन संपन्न कर जब चलने को उद्द्यत हुए तो एक बूढ़ी माता आई और बोली कि हवन यहां नहीं वहां (कुछ दूर अलग इंगित करती हुई) कही कि उस पीपल वृक्ष के पास करनी चाहिए थी । वहीं पर तुम अपनी साधना भी करना । उस अँधेरे में घने जंगल झाड़ में वह तीन चार फीट का छोटा सा पीपल दिख भी नहीं रहा था ! बूढी माता ने पास ले जाकर वह स्थान दिखला दिया ! यह कहकर वह चली गई कि अब से यहीं आराधना करना । फिर कभी उस बूढी माता के दर्शन वहाँ नहीं हुए ! जिधर बूढ़ी माता ने इंगित किया था , उस स्थान पर चारों तरफ जंगली झाड़ियाँ , घास-फूस उगे थे। जब वहां से निकलने लगे उसी समय पाँच लोग वहाँ आये और उन्होंने भी बूढी माता के कहे बातों को ही दोहराया ! बाबूजी के ये कहने पर कि यहाँ तो काफी जंगल और गंदगी है तो उन पांचों ने कहा ये जगह साफ हो जायेगा ! बाबूजी सुबह जब वहाँ पहुंचे तो वास्तव में वह स्थान बिल्कुल चमक रहा था। उस रात के बाद फिर वे पाँचों वहाँ कभी नहीं दिखे ! बाबूजी का वहाँ नियमित रूप से सुबह शाम माँ की आराधना शुरू हो गयी ! बाबूजी के भक्त समाज को मानो ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा ! भक्तो को अपने दुःख दूर करने का एक ठिकाना जो मिल गया था ! अचानक एक रोज एक भक्त वहां आकर काली माता का फोटो दे गए और अनुरोध किया कि बाबा माँ को यहाँ देखना चाहते हैं । फोटो रखकर वहां कैलाश बाबा पूजा-उपासना करने लगे। भक्तों की भीड़ जुटने लगी । अनवरत पूजा-आराधना शुरू हो गई। बाबूजी का तप , सिद्धि माता की अनुकंपा और भक्तों की श्रद्धा से २६ - १० - १९८२ में यहां माँ महा काली की स्थापना हुई । इसमें मां महाकाली की आदमकद दिव्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई। बाद में 1999 में मां के गर्भगृह से सटे पूरब माता महालक्ष्मी और 2000 में पश्चिम में माता महासरस्वती की स्थापना उन्होंने कराई। मंदिर के सामने हवन कुंड है। नवरात्र में कलश स्थापना के दिन और नवमी को हवन करने के लिए भक्तों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। परिसर में तुलसी चौरा , बृहस्पति स्थान , ब्रह्म बाबा स्थान ( जहाँ प्रथम पूजा प्रारम्भ हुई थी ) , शनि स्थान , बजरंगवली ध्वज स्थान तथा महादेव स्थान अवस्थित है ! परिसर में स्थित पूजनीय वृक्ष धात्री ( आँवला ) , पीपल , बड़गद , केला , आम , महुआ आदि हैं ! विंध्यवासनी - कैलाश झा पुस्तकालय भी परिसर में स्थित है जिसमे सैकड़ों धार्मिक पुस्तकें यथा वेद , पुराण , उपनिषद , तंत्र , मन्त्र , ज्योतिषीय एवं अनेकानेक धर्म ग्रन्थ उपलब्ध हैं !
परम पूजनीय बाबूजी / गुरूजी के कुछ सिद्धियों का मैं भी प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ !बहुत छोटे में अपने मामा के जनेऊ में ननिहाल में था तो एक रोज अचानक गाँव में आग लग गयी ! बाबूजी के बारे में जो जानते थे वे दौड़े दौड़े उनके पास आकर उन्हें आग से गाँव की रक्षा करने का अनुरोध करने लगे तो उन्होंने पीली सरसों मंगवाकर आग लगे घर के आगे से अग्नि को बांध दिया जिसके फलस्वरूप आगे के घरों का एक तिनका भी नहीं जला !
मैं सात आठ साल का रहा हूँगा जब मैं बहुत बीमार पड़ गया था और कोई भी सुई दवा महीनो लेने के बाद भी कोई सुधार नहीं हो रहा था तो एक रोज अपने मन्त्र सिद्धि के बल पर मेरे शरीर पर मन्त्र का प्रयोग करते हुए अपने मुख से मेरे शरीर के बीमारी के कारण बने माँस के एक छोटे टुकड़े को बाहर निकाल फेंके और मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया !
बाबूजी के वाक्य सिद्धि के महिमा से अनेको अनन्य श्रद्धालु भक्तों के एक से एक असाध्य कष्ट दूर हो जाते थे !
स्थानीय कार्यक्रम - चारों नवरात्र यथा -चैत्र , आषाढ़ी , आश्विन एवं माघी नवरात्रि ! महा काली पूजा - दीपावली को ! महा लक्ष्मी पूजा - कोजगरा एवं दीपावली को ! महा सरस्वती पूजा - बसंत पञ्चमी को ! शत चण्डी यज्ञ - चैत्र नवरात्र में ! खिचड़ी का भोग - प्रत्येक शनिवार संध्या को ! खीर का भोग - प्रत्येक मंगलवार संध्या को ! भजन संध्या - प्रत्येक बृहस्पतिवार , शनिवार एवं विशेष पर्व त्योहारों पर ! हवन - प्रत्येक पूर्णिमा , अमावश्या एवं विशेष पर्व त्योहारों पर !
समस्तीपुर जंक्शन के समीप शहर के टुनटुनिया गुमटी (फुट ओवरब्रिज) से सटे कालीपीठ की भव्यता और दिव्यता देखते ही बनती है। यह मंदिर परंपरागत स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। यहां तीनों महाशक्तियां महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती विराजमान हैं। मंदिर में एकबार आने मात्र से परम शांति की अनुभूति होती है। कहते हैं कि यहां आने वाले भक्तों का तीनों महाशक्तियां मिलकर कल्याण करती हैं। सच्चे मन से जो कुछ भी मांगा जाता है, वह मनोरथ अवश्य पूरा होता है। मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है।
इस कालीपीठ का निर्माण 1982 में मधुबनी जिला के पिलखवार निवासी पं कैलाश बाबा पुत्र स्व मुरलीधर झा माता कामा देवी के द्वारा हुआ था।
मेरे पूज्य नाना जी गंगाधर झा क्षेत्र में मालिक के नाम से जाने जाते थे ] लोगों की श्रद्धा उनके प्रति इतनी थी कि उनके सामने से कोई जूता चप्पल पहन कर नहीं गुजरता था ] कोई भी फैसला के लिए दूर दूर से लोग उनके पास आते और दुर्गास्थान में उनके पांव छू कर अपने अपने को निर्दोष सिद्ध करते परंतु जो दोषी होते उन्हें चौबीस घंटे के अंतर्गत प्राकृतिक दण्ड प्राप्त हो जाता था ! उनकी इस देवी शक्ति की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी !
मेरे परम पूज्य पर नाना शोरेलाल झा दरभंगा महाराज से सात सौ बीघे के इन्हे जमींदारी प्राप्त हुई थी ! ये दरभंगा महाराज के भाई राजा रामेश्वर सिंह के गुरु थे ! ये महान सिद्ध देवी साधक थे ! शक्ति ऐसी थी कि यदि किसी के आगे सर झुक जाये तो उसके सर के दो टुकड़े हो जाये ! इस बात की परीक्षा दरभंगा महाराज के दरबार में हुई थी ! दरभंगा में राजा के द्वारा सिद्ध माँ श्यामा माई की स्थापना करवाई थी !
मेरे परम पूज्य वृद्ध पर नाना महामहोपाध्या दुर्गादत्त झा जन्म लेते ही इनके मुख से वेद वाक्य निकलने लगे थे ! ये महान सिद्ध साधक थे ! इनके वस्त्र आकाश में सूखते थे ! भोजन की थाल माँ दुर्गा स्वयं देती थी ! ये महान सिद्ध साधक महामहोपाध्या मदन उपाध्याय के गुरु थे ! इन्होने ही समौल में दुर्गास्थान की स्थापना की थी !
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छठि व्रत ( प्रतिहार षष्ठी )
प्रतिहार पदक दू गोट अर्थ कयल गेल अछि ! एकटा संवादवाहक दोसर सूर्यक रथ ! जहिना नीक समदिया कार्यसाधक होइत अछि तहिना ई व्रत कएला पर लोकक मनोरथक पूर्ति होइत छैक ! दोसर रथ पर जेना सुखसँ बैसल जाइछ तहिना ई व्रत केला सँ सूर्य प्रसन्न होइत छथि !
ई व्रत सप्तमी युक्त षष्ठी करी किन्तु पंचमी युक्त षष्ठी नहीं करी ! सूर्यक पहिल अर्घ ओहि दिन दी जहिया उदयकालमें कनिओ काल षष्ठी पडैक ! पश्चात सप्तमीओ भ जाइ त छति नहि ! प्रातः काल उदय काल में कनियो काल सप्तमी रहला पर दोसर अर्घ दियनि !
ई सूर्यक पूजा थिक ! साँझ में षष्ठी में पहिल अर्घ आ प्रातःकाल सप्तमीमे दोसर अर्घ देल जाइत अछि ! जे वस्तु साँझ में अर्पित होइत अछि सएह भिनसरमे सेहो ! आरोग्य लाभ एहि व्रतक मुख्य उद्देश्य अछि ! " आरोग्यं भास्करदिच्छेत् " एहि तरहक पुराणक वचन अछि ! तखन सामर्थशाली देवता भक्तक सब मनोरथक पूर्ति करैत छथि ! एहि व्रतमे जाति वा धर्मक बंधन नहि अछि ! महिला पुरुष सभ एहि व्रतक अधिकारी होइत छथि ! देश विदेश में ई व्रत कयल जाइत अछि !
ई सूर्यक व्रत अछि ई व्रत कएलासँ व्रतीकेँ सब तरहक मनोरथक पूर्ति होइत अछि ! छठि करयवाला चौठ के नहा क अर्वा - अरवाइन खाइत छथि ! पंचमी दिन दिनभरि उपवास राखि सायंकाल नव चूल्हि पर नव कोहामे अरबा चाउरमे गुड द पायस बनबैत छथि तकरा डालीक अनुसार अथवा एके ठाम उत्सर्ग क अपनो खाइत छथि आ प्रसादो बँटैत छथि ! षष्ठी दिन व्रत करयवाली या वाला सांझुक पहर नित्यक्रिया सं निवृत भ पवित्र वस्त्र पहिर नदी वा पोखरि लग जा सूर्यक मुहे बैसि जतेक गोटाक निमित अर्घ्य देबाक रहैत छनि ततेक डाली , सूप वा ढाकन में अर्घ्य सामिग्री जेना ठकुआ , भुसवा , करा , फल , फूल , पान , सुपारी , धूप , दीप , अंकुरी जुटा लैत छथि !
ब्राह्मण आ विधवा कुश तील जल ल आ सधवा दुवि अक्षत ल संकल्प करैत छथि - " नमोअद्य कार्तिक मासीय शुक्ल पक्षीय षष्ठमयां तिथौ ( गोत्रक नाम ल क ) जनम - जन्मातरार्जित ज्ञाताज्ञात कायिक वाचिक मानसिक सकल पाप क्षयपूर्वक चिरंजीवी पुत्र पौत्रादि गोधन धन्यादि समृद्धि सुख सौभाग्य अवैधव्य सकल कमावाप्ति - काम अद्य प्रातश्च सूर्यायार्धमहं दास्ये !" ई संकल्प करैत छथि ! तखन अक्षत लै - " नमो भगवन सूर्य इहागच्छ इहतिष्ठत " कहि सराइमे अक्षत राखि जल ल - एतानि पाद्यार्घाचमनीय स्नानीय पुनराचमनीय नमो भगवते श्री सूर्यनारायणाय नमः " कहि जल चढ़ा फूलमे लाल चानन लगा , लाल फूल , दूबि , अक्षत पकवान सहित जल ल के सूर्य के देखैत नमोस्तु सूर्याय नमः ! कहि सब डाली उत्सर्ग क घर चलि अबैत छथि आ पुनः सब सामान उत्सर्ग क कथा सुनैत छथि !
छठि व्रत कथा
एक समय नैमिषारण्य में सर्वशास्त्रज्ञ शौनक मुनि सूतजी सं जिज्ञासा कयलनि कि एहि पृथ्वी पर जे लोक सब तरहक रोग सँ ग्रस्त अछि , ककरो सन्ताने नहि होइत छैक त ककरो पुत्र अल्पायु में मरि जाइत छैक तकरा लोकनिक दुःखक नाश कोना हेतैक ? सूतजी ताहि पर कहब प्रारम्भ कयलनि ! ठीक इएह बात सत्यव्रती भीष्म पुलस्त्य मुनि सं पूछने छलखिन से हमरा बुझल अछि ! ई कथा कहनाहर आ सुननाहर दुनूक पापक विनाश होइत छैक ! प्राचीन काल में एकटा बलवान आ ईर्ष्यालु दुष्ट क्षत्रिय राजा छलाह ! हुनका पूर्व जन्मक पापे कुष्ट भ गेलनि ! हुनका यक्ष्मा रोग सेहो ध लेलकनि ! ऒ एहन जिंदगी सं मरण नीक बुझि गेलाह ! ठीक ओहि समय में एकटा शास्त्रज्ञ , धर्मात्मा , तेजस्वी ब्राह्मण ओहिठाम पहुँचलाह ! राजा हुनका देखि अत्यंत प्रसन्न भेलाह ! हुनक पूर्ण स्वागत सत्कार कएलनि आ विनम्र भाव सं प्रश्न कैलनि जे हम कुष्ट आ यक्ष्मा रोग सं पीडीत छी ! कियो पुत्र विहीन छैथ ! कोनो व्यक्तिक सन्तान नहि जीवैत छनि ! एहि स्त्रीके पति त्यागि देने छैक ! एहि सभ दुःखक कि निदान ? तखन ओ ब्राह्मण विचारलनि जे सूर्यदेव लोकक सब तरहक पाप के नाश क आरोग्य प्रदान करैत छथि ! तैं ओ राजा के कहलखिन जे आहांलोकनि सूर्यक व्रत करैत जाउ अवश्य कल्याण होएत ! तखन ओ ब्राह्मण हुनकालोकनिक पञ्चमीक खरनासँ ल सप्तमीक प्रातःकालक अर्घ्य ( छठि व्रतक पूर्ण विधान ) बुझौलनि ! ओ सब ओही तरहे कैलनि तँ सभक क्लेश दूर भ गेलैनि ! तकर बाद एकटा जे नीक वंशक ब्राह्मण दरिद्र , मुर्ख अविवाहित छलाह ओ एके वर्ष ई व्रत कयलनि तँ ओ अत्यंत यशस्वी ओ सुखी भ गेलाह ! ओ राजा सेहो जखन पाँच वर्ष व्रत कएलनि तखन हुनको मंत्री सब अपनामे विचारि राजा लग आबि हुनका अपन सभक अगुआ बना क सेना ल विद्रोहीके मारि भगौलनि आ राजा पूर्व जकाँ निष्कंटक राज्य करए लगलाह !
अतः जे केओ ई व्रत कएलनि सब मनवांछित फल प्राप्त कएलनि ! जे केओ ई व्रत क कथा सुनि शक्ति अनुसारे कथावाचककेँ दक्षिणा देती तिनका सब तरहक क्लेश दूर भ जेतनी !
कथा सुनलाक बाद पूजित देवताके प्रणाम क विसर्जन क ब्राह्मणके दक्षिणा आ प्रशाद द व्रती पारण करथि !
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धनतेरस - श्री लक्ष्मी पूजनोत्सव
समुद्र - मंथन के अंतिम दिन यानी प्रकाश पर्व दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को पूरे देश में धनतेरस मनाने की परंपरा है ! इस दिन कोई वस्तु - विशेषकर बर्तन या धातु विशेषकर सोना - चांदी खरीदना सगुन होता है ! इस दिन भगवान विष्णु की पूजा किसी लालच में नहीं , बल्कि शुद्ध भाव से करनी चाहिए !
लक्ष्मी से स्थूल तात्पर्य है - अर्थ !
लक्ष्मी - पूजा वस्तुतः अर्थ का पर्व है ! गणेश , दीप - पूजन और गौ द्रव पूजन इस पर्व की विशेषतायें हैं ! गोधूलि लग्न में पूजा प्रारम्भ करके महानिशि काल तक महालक्ष्मी के पूजन को जारी रखा जाता है !
माँ महालक्ष्मी को आठ चीजें बेहद प्रिय - १ - एक आँख वाला श्रीफल ! २ - शंख ! ३ - कौड़ी ! ४ - कमल गट्टा !
५ - चाँदी ! ६ - श्रीयंत्र ! ७ - धनकुबेर ! ८- मोती !
वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरुप अत्यंत व्यापक रहा है ! ऋग्वेद की ऋचाओं में ' श्री ' का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूप में हुआ है ! अथर्वेद में पृथ्वी सूक्त में ' श्री ' की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहते हैं " श्रिया माँ धेहि " अर्थात मुझे श्री की प्राप्ति हो ! श्रीसूक्त में ' श्री' का आवाहन जातवेदस के साथ हुआ है ! ' जातवेदोमआवह ' जातवेदस अग्नि का नाम है ! अग्नि की तेजस्विता तथा श्री की तेजस्विता में भी साम्य है !
विष्णु पुराण में लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में की गई है - श्री रूप और लक्ष्मी रूप ! श्रीदेवी को कहीं - कहीं भू देवी भी कहते हैं ! इसी तरह लक्ष्मी के दो स्वरुप हैं ! सच्चिदानन्दमयी लक्ष्मी श्री नारायण के ह्रदय में वास करती हैं ! दूसरा रूप है भौतिक या प्राकृतिक संपत्ति की अधिष्टात्री देवी का ! यही श्री देवी या भूदेवी हैं ! सब संपत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्वमयी है ! इनके पास लोभ , मोह , काम , क्रोध और अहंकार आदि दोषों का प्रवेश नहीं है ! यह स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी , राजाओं के पास राजलक्ष्मी , मनुष्यों के गृह में गृहलक्ष्मी , व्यापारियों के पास वाणिज्यलक्ष्मी और युद्ध विजेताओं के पास विजयलक्ष्मी के रूप में रहती हैं !
अष्टसिद्धि और नवनिधि की देवी श्रीलक्ष्मी भौतिक मनोकामनाओं को पूर्ण करती हैं ! कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को जब सूर्य और चन्द्र दोनों तुला राशि में होते हैं , तब दीपावली का त्योहार मनाया जाता है ! इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंगों पर शयन - गामी होते हैं और श्रीलक्ष्मी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं !
भारतीय पद्धति के अनुसार आराधना , उपासना व् अर्चना में आधिभौतिक , आध्यात्मिक और आधिदैविक - इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है ! दीपावली में सोना - चांदी आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता है ! घरों को दीपमाला आदि से सुसज्जित करना लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरुप की शोभा बढ़ाने का उपक्रम है !
देवी की जितनी भी शक्तियां मानी गयी हैं , उन सब की मूल भगवती लक्ष्मी ही हैं ! ये ही सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं ! लक्ष्मी नित्य सर्वव्यापक हैं ! पुरुषवाची भगवान हरी हैं और स्त्रीवाची लक्ष्मी ! इनसे इतर कोई नहीं हैं !
सामान्यतः दीपावली पूजन का अर्थ लक्ष्मी पूजा से लगाया जाता है , किन्तु इसके अंतर्गत गणेश गौरी , नवग्रह , षोडशमातृका , महालक्ष्मी , महाकाली , महासरस्वती , धनकुबेर , तुला और मान की भी पूजा होती है ! मान्यता है कि ये सभी श्रीलक्ष्मी के साथ अंग - सदृश होते हैं !
हिरण्यवर्णां हरिणी सुवर्णरजतस्रजाम ! चन्द्राम हिरण्मयीं , लक्ष्मी जातवेदो मा वह !
ऋग्वेद में ऐश्वर्य और समृद्धि के लिए वैदिक उपासना का विधिवत वर्णन है ! विश्व में प्राचीन सिंधु सभ्यता की खुदाई में दीप लक्ष्मी की खंडित मूर्तियां मिली थी , जो तत्कालीन भारतीय सम्पन्नता और श्री - वैभव की सूचक है ! भारतीय संस्कृति में श्रीलक्ष्मी के अनेक रूप मिलते हैं ! गौ , घोड़े , हाथी , रथ आदि को लक्ष्मी की मान्यता प्राप्त है ! गौ कामधेनु है ! घोड़े अश्वशक्ति , हाथी गजलक्ष्मी और रथ वाहनश्री हैं ! ये क्रमशः कृषि , कल - कारखाने , उद्दोग - धंधे और परिवहन व्यापार के प्रतीक हैं ! : व्यापारे वसति लक्ष्मी " !
' अहम राष्ट्र संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथम यज्ञियानाम ! तां मा देवा व्यदधुः पुरूत्रा मुरिस्थात्रां भुर्यावेशयन्तीम् ! श्रीलक्ष्मी कहती हैं - मैं ही जगत की लक्ष्मी और धन ऐश्वर्य की देवी हूँ !
समस्त जगत में श्रीलक्ष्मी का राज है ! रूद्र , वसु , वरुण , इंद्र , अग्नि आदि रूपों में श्रीलक्ष्मी शोभायमान होती हैं ! वे सभी भूतों में लक्ष्मी के रूप में विराजमान रहती हैं ! ' या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता ' ! सूर्य में उषा लक्ष्मी है , जिसे यूनानी भाषा में अरोरा कहा जाता है ! चन्द्र में ज्योत्सना लक्ष्मी है , जिसे यूनान में डायना कहते हैं ! सागर में नीरजा लक्ष्मी हैं , जिसे निरीड कहते हैं और पृथ्वी में वसुमती रत्नगर्भा के रूप में लक्ष्मी निवास करती हैं ! वसु का अर्थ है धन ! पृथ्वी रत्नो की खान है ! रत्न - गर्भा है ! वह स्वर्ण - गर्भा के साथ - साथ रजत गर्भा और अयस गर्भा है ! विश्व की सारी नारियों में ये रूप गुण और सौंदर्य पाये जाते हैं ! समस्त विश्व की नारियां श्रीलक्ष्मी की संतति है , जो अपनी संस्कृति - सभ्यता और परंपरा का निर्वहन कर रही हैं !
नारी प्रकृति की अद्भुत रचना है ! वह लक्ष्मी की अंश है ! जहाँ लक्ष्मीरूपा नारियां सम्मानित होती हैं , वहां क्षीर सागर से लक्ष्मी प्रकट होती हैं और ओलपिंक पर्वत से रीया , मेयो , लारा सिरिन , प्रासग्रीन आदि अप्सराएं आ जाती हैं !
ईरान में पैरिक देव जाति की नारियां जल लक्ष्मी कहलाती थी ! फ़ारसी में पैरिक परी है , जिसे अप्सरा कहा जाता है ! अप जल का बोधक है , जिसका अर्थ होता है जल में बिहार करने वाली !
समुद्र मंथन से जो चौदह रत्न निकले थे , उनमे श्रीलक्ष्मी के साथ अप्सरा भी थीं ! अप्सरा आधुनिक अरब , ईराक , ईरान की नारियां हैं ! यानि कि वे श्रीलक्ष्मी की संताने हैं ! श्वेतवर्ण नारी यूरोप की पहचान है ! यूरोप में एक श्वेता लक्ष्मी थीं !
यूरोप का नामकरण युरोपा से हुआ है ! युरोपा वैदिकी रूपसी उर्वशी थी ! स्वर्ग की लक्ष्मी शची है , जिन्हे यूनान में हेरा कहा जाता है ! वहां राष्ट्रिय समृद्धि की सूचक है !
भारतीय नारियां श्रीलक्ष्मी को अपना आदर्श मानती हैं ! उनके श्रृंगार , परिधान और रूप सज्जा का अनुकरण करती हैं ! यूरोप की नारियां अपनी सौंदर्य देवी वीनस , निरिड और ओसियाड के परिवेश को अपनाती हैं ! इतालवी युवतियां फेमिना की तरह सजती - संवरती हैं ! इस प्रकार पुरे विश्व में श्रीलक्ष्मी की सौंदर्य - सत्ता हैं !
आभूषण - विवाह के समय कन्या सोने के हार , चांदी की माला और अन्य आभूषणों को पहनकर लक्ष्मी स्वरूपा होती हैं , क्योंकि श्रीलक्ष्मी को स्वर्ण और रजत के अलंकार प्रिय होते हैं ! लोक - परंपरा के अनुसार स्वर्ण में श्रीलक्ष्मी निवास करती हैं ! दीपावली के दिन लोग सोने - चांदी की पूजा कर श्रीलक्ष्मी का आवाहन करते हैं !
परिधान - विवाह के समय लक्ष्मी जी ने लाल परिधान यानी चुनरी पहनी थी ! विष्णु जी ने पीला वस्त्र धारण किया था ! आज भी लोक परंपरा में कन्या और वर को क्रमशः लाल और पीला परिधान धारण किये हुए देखा जा सकता है !
यूरोप की नारियां श्वेत रंग का परिधान पहनती हैं ! श्वेत रंग शांति का सूचक है ! आशय यह कि विवाहोपरांत दाम्पत्य जीवन में शांति बनी रहे !
अरब , ईराक , ईरान की नारियां हरे रंग की वस्त्र पहनती हैं जो मंगल का प्रतीक है !
वाहन - गृह देवी को ज्योतिर्लक्ष्मी का दर्जा मिला है ! वैदिकी श्रीलक्ष्मी के वाहनों का वर्णन ऋग्वेद में है और उसकी परंपरा का पालन आज भी लोकजीवन में पाया जाता है ! बारात में गृहलक्ष्मी की विदाई के लिए हाथी , घोडा , रथ , पालकी का उपयोग होता है ! आज रथ के स्थान पर मोटरकार , बग्घी आदि का प्रचलन है ! श्रीलक्ष्मी के आगे पीछे घोड़े और रथ होते हैं ! हाथी का नाद सुनकर लक्ष्मी प्रसन्न होती है !
राजलक्ष्मी के लिए गज , अश्व , कोष , रथ , सैन्य आदि नाम जुड़े हुए हैं ! प्राचीन यूनान में नाइट ( अश्वलक्ष्मी ) की पूजा होती थी ! नारियां घोड़े पर सवार होकर नाइट बनती थीं ! नाइट का मुख घोड़े का है और शेष अंग नारी का ! श्रीलक्ष्मी का मुख चन्द्रमा के समान है ' चन्द्रा प्रभासां - यशसा ज्वलतीम् ' ! वह कमल धारण करती हैं ! ' पद्मे स्थित पद्म वर्णा ' !
यूरोप में डायना ( चन्द्रलक्ष्मी ) की पूजा होती थी ! ब्रितानी युवतियां अपने मुख का लेपन करती हैं , ताकि वे डायना का स्वरुप बनें !
श्रीलक्ष्मी लाल कमल धारण करती हैं ! लाल कमल लक्ष्मी का प्रतीक है ! लाल कमलों से आच्छादित सरोवरों को लक्ष्मी का जल महल मानकर दीपदान किया जाता है ! रंगोली में कमल को उकेरा जाता है !
फ़्रांस की फ़्लोरा रंग - बिरंगे फूलों की देवी थीं ! एथेंस की विद्दा देवी मिनर्वा जहाँ अंतर्ध्यान हुई थीं , वहां जैतून उग आया था ! यूनानी नारियां जैतून के फूलों से सजकर मिनर्वा सदृश होती हैं !
दीपावली
दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है ! ह्रदय में भरे हुए अज्ञान और संसार में फैले हुए अंधकार का शमन करने वाला दीपक देवताओं की ज्योतिर्मय शक्ति का प्रतिनिधि है ! इसे भगवान का तेजस्वी रूप माना जाता है ! बीच में एक बड़ा घृत दीपक और उसके चारों ओर ११ - २१ अथवा इससे भी अधिक दीपक प्रज्वलित करें ! दीप जलाने का तात्पर्य है - अपने अंतर को ज्ञान के प्रकाश से भर लेना , जिससे ह्रदय और मन जगमगा उठे ! अंधकार से सतत प्रकाश की ओर बहते रहना ही दीपावली की प्रेरणा है ! वैदिक काल में यज्ञ एक तरह से सांस्कृतिक समारोह थे ! यज्ञ साधारण भी होते थे और असाधारण भी ! कुछ यज्ञों ( अश्वमेघ - राजसूय ) को तो मात्र राजा महाराजा ही कर सकते थे , लेकिन कुछ यज्ञों का संपादन नियमित रूप से आर्य गृहस्थों द्वारा किया जाता था ! गोपद ब्राह्मण के मुताबिक इन यज्ञों में से अग्न्याधान और अग्निहोत्र प्रतिदिन के यज्ञ थे ! अमावस्या और पूर्णिमा के दिन दशपूर्णमास यज्ञ होते थे ! फाल्गुन पूर्णिमा , आषाढ़ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास यज्ञ किये जाते थे ! उत्तरायण - दक्षिणायन के आरम्भ में जो यज्ञ होते थे वे अग्रहायण नवसस्थिष्टि यज्ञ कहलाते थे , जो कालांतर में दीपावली का त्यौहार बन गए ! यज्ञ पर्वों में ही संपन्न होते थे ! पर्व जोड़ या संधि को कहते हैं ! यह संधि पर्व ऋतू और काल संबंधी हुआ करती थी ! सायं - प्रातः , संधि , पक्ष संधि , मास संधि , ऋतू संधि , चातुर्मास संधि , अयन संधि , पर यज्ञ होते थे ! ये संधियाँ पर्व कहाती थी ! यज्ञ समाप्ति पर अवभृथ स्नान होता था ! अब यज्ञों की परिपाटी तो लगभग बंद हो गई हैं , लेकिन पर्वों पर विशेष तीर्थों पर स्नान ध्यान अब भी धर्म - कृत्य माना जाता था ! वैदिक - काल में उत्तरायण और दक्षिणायन का विशद विचार था ! यजुर्वेद में इसका विस्तार से वर्णन है ! दीपावली परिवर्तन से संबंधित त्यौहार है ! इस समय सूर्य दक्षिणायन होते हैं ! साथ ही नयाशस्य धान्य आता है ! इसलिय खील खाई जाती है , तथा दीपोत्सव मनाया जाता है ! दीपावली , जो वास्तव में अयन यज्ञ था , द्रविड़ और आग्न्येय संस्कृतियों से मिलकर श्रीलक्ष्मी का त्यौहार बन गया !
जहाँ होती स्वक्षता - सफाई और पवित्रता श्री लक्ष्मी वहीँ जाती ! घर - समाज - देश चारों ओर हो स्वक्षता और सफाई तो श्रीलक्ष्मी दौड़ी चली आयेगी !
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कोजागरा
ई पावनि आश्विन शुक्ल पूर्णिमा के मनाओल जाइत अछि ! एहि दिन लोक अपन घर आँगन नीक क नीपैत छैथि ! साँझ में दोआरि परसँ भगवतीक चीनवार तक एकटा अरिपन देल जाइत अछि पिठारसँ तहन भगवतीकेँ लोटाक जलसँ घर करैत छथि ! भगवतीक चिनवार पर कमलक अरिपन द ओहि पर सिंदूर लगा एकटा लोटामें जल भरि राखि ओहि पर आमक पल्लव द तामक सराइमे एकटा चानीक रुपैया राखि ताहि पर लक्ष्मी पूजा करैत छथि ! प्रसाद में अँकुरी , पान , मखान , केरा , मिसरी तथा नारियल भोग लगबैत छथि ! तहन प्रसाद बाँटल जाइछ ! ई कार्य घरक जे प्रसद्धि महिला से करैत छथि ! भगवती घर करक मन्त्र - " अन धन लक्ष्मी घर आउ ! दलिद्रा बाहर जाउ !! "
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९ - सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि !
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी !!
माँ दुर्गाजी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है ! ये सभी प्रकारकी सिद्धियों को देनीवाली हैं ! मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा , महिमा , गरिमा , लघिमा , प्राप्ति , प्राकाम्य , ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं ! ब्रह्मवैवर्त्यपुराण के श्रीकृष्ण् - जन्मखण्ड में यह संख्या अट्ठारह बतायी गयी है ! इनके नाम इस प्रकार हैं -
१ - अणिमा २ - लघिमा ३ - प्राप्ति ४ - प्राकाम्य
५ - महिमा ६ - ईशित्व , वाशित्व ७ - सर्वकामावसायिता ८ - सर्वगत्व ९ - दूरश्रवण १० - परकायप्रवेशन ११ -वाकसिद्धि १२ - कल्पवृक्षत्व
१३ - सृष्टि सृष्टि १४ - संहारकरणसामर्थ्य १५ - अमरत्व १६ -सर्वन्यायकत्व १७ - भावना १८ - सिद्धि
माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं ! देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था ! इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था ! इसी कारण वह लोक में ' अर्धनारीश्वर ' नाम से प्रसिद्ध हुए ! माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं ! इनका वाहन सिंह है ! ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं ! इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में चक्र , ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है ! नवरात्र - पूजन के नवें दिन इनकी उपासना की जाती है ! इस दिन शास्त्रीय विधि - विधान और पूर्ण निष्ठां के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ! सृष्टि में कुछ भी उसके लिये अगम्य नहीं रह जाता ! ब्रह्माण्ड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमे आ जाती है !
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह माँ सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न करे ! उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो ! इनकी कृपा से अत्यंत दुःख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है !
नव दुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं ! अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा - उपासना शास्त्रीय विधि - विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नवें दिन इनकी उपासना में प्रवृत होते हैं ! इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है ! लेकिन सिद्धिदात्री माँ के कृपा पात्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है , जिसे वह पूर्ण करना चाहे ! वह सभी सांसारिक इक्षाओं , आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूपसे माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा - रस - पीयूषका निरन्तर पान करता हुआ विषय - भोग - शून्य हो जाता है ! माँ भगवती का परम सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है ! इस परमं पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती ! माँ के चरणों का यह सानिध्य प्राप्त करने के लिए हमें निरन्तर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करनी चाहिये ! माँ भगवती का स्मरण , ध्यान , पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परमशान्तिदायक पद की ओर ले जाने वाला है !
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८ - महागौरी
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है ! इनका वर्ण पूर्णतः गौर है ! इस गौरता की उपमा शंख , चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है ! इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गयी है - ' अष्टवर्षा भवेद गौरी ' ! इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं ! इनकी चार भुजाएँ हैं ! इनका वाहन वृषभ है ! इनके उपरके दाहिने हाथ में अभय - मुद्रा और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है ! ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे के बायें हाथ में वर - मुद्रा है ! इनकी मुद्रा अत्यंत शान्त है !
अपने पार्वती रूप में इन्होंने भगवान शिव को पति - रूप में प्राप्त करने के लिये बड़ी कठोर तपस्या की थी ! इनकी प्रतिज्ञा थी की ' व्रियेहं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात् ' ( नारद पाँचरात्र ) गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार भी इन्होने भगवान शिवके वरण के लिये कठोर संकल्प लिया था -
जन्म कोटि लगि रगर हमारी !
बरउँ संभु न त रहउँ कुँआरी !!
इस कठोर तपस्या के कारण इनका शरीर एकदम काला पड़ गया ! इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुष्ट होकर जब भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विधुत प्रभा के समान अत्यन्त कान्तिमान - गौर - हो उठा ! तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा !
दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है ! इनकी शक्ति अमोध और सद्यः फलदायिनी है ! इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं ! उसके पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं ! भविष्य में पाप - संताप , दैन्य - दुःख उसके पास कभी नहीं आते ! वह सभी प्रकारसे पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है !
माँ महागौरी का ध्यान - स्मरण , पूजन - आराधन भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है ! हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिये ! इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है ! मनको अनन्यभावसे एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिये ! ये भक्तों का कष्ट अवश्य ही दूर करती हैं ! इनकी उपासना से आर्तजनों के असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं ! अतः इनके चरणों की शरण पाने के लिए हमें सर्वविध प्रयत्न करना चाहिये ! पुराणों में इनकी महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है ! ये मनुष्य की वृतियों को सत की ओर प्रेरित करके असत का विनाश करती हैं ! हमें प्रपत्तिभाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिये !
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७ - माँ कालरात्रि
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता !
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी !!
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा !
वर्धन्मूर्धवजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी !!
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है ! इनके शरीर का रंग घने अन्धकारकी तरह एकदम काला है ! सिरके बाल बिखरे हुए हैं ! गले में विद्धुत की तरह चमकनेवाली माला है ! इनके तीन नेत्र हैं ! ये तीनो नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं ! इनसे विध्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं ! इनकी नासिकाके श्वास - प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं ! इनका वाहन गर्धव - गदहा हैं ! ऊपर उठे हुए दाहिनी हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं ! दाहिनी तरफ का नीचेवाले हाथ अभयमुद्रा में हैं ! बायीं तरफ के उपरवाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचेवाले हाथ में खड्ग है !
माँ कालरात्रि का स्वरुप देखने में अत्यंत भयानक है , लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देनेवाली हैं ! इसी कारण इनका एक नाम शुभंकरी भी है ! अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है !
दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है ! इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है ! उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है ! इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरुप में अवस्थित रहता है ! उनके साक्षात्कारसे मिलनेवाले पुण्य का वह भागी हो जाता है ! उसके समस्त पापों - विघ्नों का नाश हो जाता है ! उसे अक्षय पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है !
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करनेवाली हैं ! दानव , दैत्य , राक्षस , भूत , प्रेत आदि इनके स्मरणमात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं ! ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करनेवाली हैं ! इनके उपासक को अग्नि - भय , जल - भय , जंतु - भय , शत्रु - भय , रात्रि - भय आदि कभी नहीं होते ! इनकी कृपा से वह सर्वथा भय - मुक्त हो जाता है !
माँ कालरात्रि के स्वरुप - विग्रह को अपने ह्रदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिये ! यम , नियम , संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिये ! मन , वचन , काया की पवित्रता रखनी चाहिये ! वह शुभंकरी देवी हैं ! उनकी उपासना से होनेवाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती ! हमें निरंतर उनका स्मरण , ध्यान और पूजन करना चाहिये !