75.
उसे जिन्दगी से बहुत प्यार था
कैसा उसका तन होगा
इसका उसे ख्वाब न था
खुद उसके वादे
उसके ही इश्क पर हँस रहे थे
मुझको जब सब मिल गया था
अब मैं नामुराद उदास आशिक
सोंचों को तब उगाता रहा था
हकीकत को जीवन मानकर
रेगिस्तान में छाया का
उम्मीदों भरा एक तलाश था
प्यारों से भरे
उसके जिन्दगी को पाकर
सबने मिलकर उसके इश्क को
एक कच्चे कब्र में दफना कर
सबने तालियाँ बजाई थी
जश्न मनाया था
शहनाइयां बजाकर
पर जब उसने
अपने सच को
कागज़ से कहा
शब्दों ने चीख - चीख कर
उसके भूत ने
भविष्य से कहा
सब बहरे थे
शब्दों की भयानक कराह
जिन्दा लाशों की नगरी में
बेतरह हाथ पाँव मारकर
कागज़ के सादे पन्ने की तरह
साफ - साफ खामोश हो गया
मेरा जन्म
एक पवित्र सच था
मेरा तन झूठा हो गया
उसकी जिन्दगी
कुँवारी कली की सुबह बन गयी
हर चीख उसका शांत हो गया
बोया गया
उसके वादों और शब्दों का पौधा
हो जाएगा जब बड़ा
जिन्दा लाशों की नगरी में
दफनाये अपने कब्र से
नंगे पांवों दौड़ते हुए
चौखट को मेरे
जो उनके पाँव छुए
पुनर्जन्म हो जाएगा
उसके शब्दों को
उसका सतीत्व मिल जाएगा
उसके वादों को
सर उठाकर
फिर से एकबार
जीने का सच्चा सहारा मिल जाएगा
खुले आकाश की धुप
उसके खाश अपने
आँगन में खिलेगी
हर कुछ संभव है
गर आत्मा पूरी मरी न हो
तिल के बराबर भी
जो आत्मा जगी होगी
झूठ को छुपने का
कोई ठिकाना न होगा
झूठ अपना ही चेहरा खरोंच कर
खुद लहूलुहान हो जाएगा
जिन्दा रहकर भी
जिन्दा लाश ही कहलायेगा
सफ़र ख़त्म हो जाएगा गर जो कब्रिस्तान जाग जायेगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-02-1984
कोलकाता 6-00pm
उसे जिन्दगी से बहुत प्यार था
कैसा उसका तन होगा
इसका उसे ख्वाब न था
खुद उसके वादे
उसके ही इश्क पर हँस रहे थे
मुझको जब सब मिल गया था
अब मैं नामुराद उदास आशिक
सोंचों को तब उगाता रहा था
हकीकत को जीवन मानकर
रेगिस्तान में छाया का
उम्मीदों भरा एक तलाश था
प्यारों से भरे
उसके जिन्दगी को पाकर
सबने मिलकर उसके इश्क को
एक कच्चे कब्र में दफना कर
सबने तालियाँ बजाई थी
जश्न मनाया था
शहनाइयां बजाकर
पर जब उसने
अपने सच को
कागज़ से कहा
शब्दों ने चीख - चीख कर
उसके भूत ने
भविष्य से कहा
सब बहरे थे
शब्दों की भयानक कराह
जिन्दा लाशों की नगरी में
बेतरह हाथ पाँव मारकर
कागज़ के सादे पन्ने की तरह
साफ - साफ खामोश हो गया
मेरा जन्म
एक पवित्र सच था
मेरा तन झूठा हो गया
उसकी जिन्दगी
कुँवारी कली की सुबह बन गयी
हर चीख उसका शांत हो गया
बोया गया
उसके वादों और शब्दों का पौधा
हो जाएगा जब बड़ा
जिन्दा लाशों की नगरी में
दफनाये अपने कब्र से
नंगे पांवों दौड़ते हुए
चौखट को मेरे
जो उनके पाँव छुए
पुनर्जन्म हो जाएगा
उसके शब्दों को
उसका सतीत्व मिल जाएगा
उसके वादों को
सर उठाकर
फिर से एकबार
जीने का सच्चा सहारा मिल जाएगा
खुले आकाश की धुप
उसके खाश अपने
आँगन में खिलेगी
हर कुछ संभव है
गर आत्मा पूरी मरी न हो
तिल के बराबर भी
जो आत्मा जगी होगी
झूठ को छुपने का
कोई ठिकाना न होगा
झूठ अपना ही चेहरा खरोंच कर
खुद लहूलुहान हो जाएगा
जिन्दा रहकर भी
जिन्दा लाश ही कहलायेगा
सफ़र ख़त्म हो जाएगा गर जो कब्रिस्तान जाग जायेगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-02-1984
कोलकाता 6-00pm
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