79.
मैं सविता तूँ सावित्री
मैं अग्नि तूँ पृथ्वी
मैं वायु तूँ अंतरिक्ष
मैं मन तूँ वाक
मैं आदित्य तूँ धौ
मैं नक्षत्र तूँ चंद्रमा
मैं दिन तूँ निशा
मैं उष्ण तूँ शीत
मैं बादल तूँ वर्षा
मैं तड़क तूँ विद्धुत
मैं अन्न तूँ प्राण
मैं वेद तूँ छन्द
मैं दक्षिणा तूँ यज्ञं
मैं हुआ आशक्त था जब तुझ पर
तेरे स्वभाविक नीले केश
लहरा रहे थे कुक्षी तक
अप्राकृतिक आभुष्णओ की
थी नहीं जरुरत तुझे
खिल रही थी यूँ ही
इन्द्र धनुष की तरह
विकसित नील कमल से
श्याम वर्ण से युक्त
तेरे दोनों नेत्र
चकित हिरणी के समान
चंचल दिख रहे थे तेरे नेत्र
स्वाभाविक चंचलता से युक्त
तेरे दोनों सुन्दर भौहें
कामदेव के धनुष की तरह
कर रही थी कानों से भेंट
दोनों भोंहों के मध्य से
निम्न भाग की ओर
प्रशस्त हो रही थी
उन्नत नासिका
कर रही थी
फूलों के लावण्यता को फीका
रक्त कमल की आभा सी
फैल रही थी मुख पर उसकी
पूर्ण चंद्र की आभा से
लग रही युक्त थी
सौ सूर्य और लावण्य से
संयुक्त लग रही तेरी मुख थी
चिबुक के समीप
पहुँचने के के लिए
कुचों में लग रही होड़ थी
उन कुचों के मुख
श्याम वर्ण से युक्त थी
वक्ष लग रहे कमल की कली थी
मध्य भाग में
रेशम से मुलायम
मुट्ठी में ही बंद करने लायक
लग रहे थे एकदम
बिजली की कड़क सी उज्जवल
लग रही दन्त पंक्ति थी
मैं हुआ आशक्त था
जब तुझ पर
नज़र मेरी पड़ी थी
दिख रही थी तूँ ऐसी ही उस वक्त !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 02-09-1983
मैं सविता तूँ सावित्री
मैं अग्नि तूँ पृथ्वी
मैं वायु तूँ अंतरिक्ष
मैं मन तूँ वाक
मैं आदित्य तूँ धौ
मैं नक्षत्र तूँ चंद्रमा
मैं दिन तूँ निशा
मैं उष्ण तूँ शीत
मैं बादल तूँ वर्षा
मैं तड़क तूँ विद्धुत
मैं अन्न तूँ प्राण
मैं वेद तूँ छन्द
मैं दक्षिणा तूँ यज्ञं
मैं हुआ आशक्त था जब तुझ पर
तेरे स्वभाविक नीले केश
लहरा रहे थे कुक्षी तक
अप्राकृतिक आभुष्णओ की
थी नहीं जरुरत तुझे
खिल रही थी यूँ ही
इन्द्र धनुष की तरह
विकसित नील कमल से
श्याम वर्ण से युक्त
तेरे दोनों नेत्र
चकित हिरणी के समान
चंचल दिख रहे थे तेरे नेत्र
स्वाभाविक चंचलता से युक्त
तेरे दोनों सुन्दर भौहें
कामदेव के धनुष की तरह
कर रही थी कानों से भेंट
दोनों भोंहों के मध्य से
निम्न भाग की ओर
प्रशस्त हो रही थी
उन्नत नासिका
कर रही थी
फूलों के लावण्यता को फीका
रक्त कमल की आभा सी
फैल रही थी मुख पर उसकी
पूर्ण चंद्र की आभा से
लग रही युक्त थी
सौ सूर्य और लावण्य से
संयुक्त लग रही तेरी मुख थी
चिबुक के समीप
पहुँचने के के लिए
कुचों में लग रही होड़ थी
उन कुचों के मुख
श्याम वर्ण से युक्त थी
वक्ष लग रहे कमल की कली थी
मध्य भाग में
रेशम से मुलायम
मुट्ठी में ही बंद करने लायक
लग रहे थे एकदम
बिजली की कड़क सी उज्जवल
लग रही दन्त पंक्ति थी
मैं हुआ आशक्त था
जब तुझ पर
नज़र मेरी पड़ी थी
दिख रही थी तूँ ऐसी ही उस वक्त !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 02-09-1983
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