77.
एक नाचीज हूँ मैं
गलियों का सह्जादा
और सड़कों का
आवारा हूँ मैं
वक्त की सहनाई नहीं
बेवक्त का सुर हूँ मैं
बच के उनके दामन से
जो न निकल पाया
वही ' सवेरा ' हूँ मैं
सुनना चाहो या न चाहो
सुनाता हूँ
किस्साए दास्ताँ मैं
न वो शब्जपरी थी
ना ही वो लाल परी थी
हाँ तो यारों
ना तो वो सुर थी
ना ही वो हूर थी
बस मेरे आँखों की
वो एक नूर थी
कभी नीला आसमान था
अब काली घटा हूँ मैं
कभी दिले जानों जिगर था
अब दिले नासूर हूँ मैं
चश्में बददुर था कभी
जिनके लिए
अब बददुरे दस्तुर हूँ मैं
कभी वो लैला
मैं मजनू था
अब उस कहानी का
बस एक मजमून हूँ मैं
कभी मेरे लब पे
उनका लब था यारों
अब सुनता हूँ
उसी लब से
मौत की ख़बरें यारों
कभी मेरे साँस से
उनकी सांसें चलती थी
मेरी धड़कन भी वो
सुनती थी कभी यारों
अब उन्हीं सांसों से
सुनता हूँ फुफकार यारों
जब जो मिला
अपना बना लिया यारों
सुनता हूँ अब कोई
उन्हें अपना मिल गया यारों
उससे ही अब उन्हें
अपना मतलब निकालते
देखता हूँ यारों
खाई थी वो
मेरे सांसों की कसम
खाई थी साथ
जीने मरने की कसम
खाई थी भूखे भी
सदा साथ रहने की कसम
खाई थी जुदा होते ही
मर जाने की कसम
बोली कभी होंगे न जुदा
खाई थी वो
वादा निभाने की कसम
खाई थी वो
मेरे जिंदगानी की कसम
खाने को क्या - क्या न खाई
खा गई सारे कसमों को
खाने को तो वो खा गई यारों
मरने को तो
बस मैं मरता हूँ यारों
चाहिए तो था उसे कुछ और
अपना कोई मिल ही गया
क्या हुआ गर जो
न मैं मिला उनको यारों
हर हाल में जिन्दा रहूँगा
उसकी रुसवाई की है कसम
हर हाल में हंसूंगा
उसकी बेवफाई की है कसम
हर हाल में रहूँगा
उसकी ठोकर की है कसम !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 27-12-1983 समस्तीपुर
एक नाचीज हूँ मैं
गलियों का सह्जादा
और सड़कों का
आवारा हूँ मैं
वक्त की सहनाई नहीं
बेवक्त का सुर हूँ मैं
बच के उनके दामन से
जो न निकल पाया
वही ' सवेरा ' हूँ मैं
सुनना चाहो या न चाहो
सुनाता हूँ
किस्साए दास्ताँ मैं
न वो शब्जपरी थी
ना ही वो लाल परी थी
हाँ तो यारों
ना तो वो सुर थी
ना ही वो हूर थी
बस मेरे आँखों की
वो एक नूर थी
कभी नीला आसमान था
अब काली घटा हूँ मैं
कभी दिले जानों जिगर था
अब दिले नासूर हूँ मैं
चश्में बददुर था कभी
जिनके लिए
अब बददुरे दस्तुर हूँ मैं
कभी वो लैला
मैं मजनू था
अब उस कहानी का
बस एक मजमून हूँ मैं
कभी मेरे लब पे
उनका लब था यारों
अब सुनता हूँ
उसी लब से
मौत की ख़बरें यारों
कभी मेरे साँस से
उनकी सांसें चलती थी
मेरी धड़कन भी वो
सुनती थी कभी यारों
अब उन्हीं सांसों से
सुनता हूँ फुफकार यारों
जब जो मिला
अपना बना लिया यारों
सुनता हूँ अब कोई
उन्हें अपना मिल गया यारों
उससे ही अब उन्हें
अपना मतलब निकालते
देखता हूँ यारों
खाई थी वो
मेरे सांसों की कसम
खाई थी साथ
जीने मरने की कसम
खाई थी भूखे भी
सदा साथ रहने की कसम
खाई थी जुदा होते ही
मर जाने की कसम
बोली कभी होंगे न जुदा
खाई थी वो
वादा निभाने की कसम
खाई थी वो
मेरे जिंदगानी की कसम
खाने को क्या - क्या न खाई
खा गई सारे कसमों को
खाने को तो वो खा गई यारों
मरने को तो
बस मैं मरता हूँ यारों
चाहिए तो था उसे कुछ और
अपना कोई मिल ही गया
क्या हुआ गर जो
न मैं मिला उनको यारों
हर हाल में जिन्दा रहूँगा
उसकी रुसवाई की है कसम
हर हाल में हंसूंगा
उसकी बेवफाई की है कसम
हर हाल में रहूँगा
उसकी ठोकर की है कसम !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 27-12-1983 समस्तीपुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें