६३. अम्मा मेरी महान है मुझको बड़ा अभिमान है उसकी बड़ी आन है उसकी बड़ी शान है अम्मा मेरी महान है निज जीवन भी मेरा शत बार बलिदान है आकाश से भी ऊँची सागर से भी गहरी धरती से भी अधिक अम्मा मेरी महान है सब जन्मों में पाऊं तुझ से ही माँ का प्यार बस ये ही है इक अरमान अम्मा मेरी विन्ध्याचल वासनी पिता साक्षात् कैलाश हैं जन्म मेरा सार्थक है अम्मा धैर्य की मूर्ति पिता ज्ञान के सागर हैं दोनों को मेरा शत - शत नमन है दोनों मेरे लिए यहाँ इश्वर से भी महान हैं !
६२. नया सूरज जो उग रहा है प्रकाशहीन और बेहद काला है सो रहा है जनसमुदाय भाग्य का जिसका हो रहा बंटवारा है मानवता ना जाने कहाँ शायद हर जगह वहां मेरे जैसा दिल बसता होगा जहां सीत्कार रही है ताकत का पुतला कर रहा इन्तजार है समझ भी रहा है उसका उजला सूरज उगनेवाला नहीं है काले सूरज की कालिमा गहरी घनी होती जा रही है मानव समुदाय मात्र कालिमा की चाहत लिए हुए है ढंका रहे जिसमे उसके दामन के काले धब्बे उजाला मेरे पास अपवाद्ग्रस्त मनुष्य के पास जाकर उसे सता रही है फिर भी उसे उजाले की ऐसी तमन्ना है जैसे बच्चों में प्यार की जो एक भूख होती है दूध , मिठाई और खिलौने से कंही अधिक मादक होती है उजाले की तरह माँ के गोद में संसार की सारी निधि उसे फीकी लगती है भविष्य के गर्भ में सूरज की रूप छिपी है देखें नया सूरज कौन सा आता है किसके लिए क्या लाता है ?
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १४-०३-१९८४. ८-४५.pm -कोलकाता -
६१. ' मैं ' ' मैं ' हूँ मेरा न कोई शब्द है न ही शब्दों का कोई अर्थ है भयावह शाम का एक अनछुआ जलन है शब्दों को उनके खोज - खोज कर थक गया हूँ मेरा ' मैं ' शायद पकड़ लिया था उनके शब्दों को जिसका न कोई रूप था न रंग था अर्थहीन मेरे जीवन की तरह शायद उनके ओ शब्द थे जौहरी तो कीमत ही लगाता रहा लुटेरा लूट कर चला गया अँधेरी रात में शायद छत से कूद कर शून्य आकाश केवल साक्षी था और सुबह का सूरज उसके खून से लतफत था उसके शब्दों के खून बेतरतीब फैल गए थे आकाश भी मैला हो गया था शायद वजह यही थी शाम भी धुंधला हो गया था वे शब्दों के तस्वीर पाने के लिए भटक रहे थे मेरा ' मैं ' सिर्फ शब्दों के वजूद को ढूंढ़ रहा था लुटेरा कूद चूका था शब्द मूर्ति को लेकर घुटने उसके छिल गए थे खून के दाग उसके दामन पर बेतरतीब फैल गए थे ' सवेरा ' की सुबह वो लुटेरा निगल गया तारे साक्षी रहे पर सूरज खिसक गया !
६०. मैं जब बोलता हूँ तुम कान बंद कर लेते हो मैं जब देखने को कहता हूँ तुम आँख बंद कर लेते हो अपने को भूले रहने में ही आनन्द तुम को आता है हाल जब तुम्हारा यह है जब भी पहचान तुम्हारा तुम से ही कराता हूँ खुद को पहचान नहीं पाते हो लिपटी हुई वस्तुओं से तुम इतनी त्रस्त हो अपने ही सत्य को जानने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हो असत्य की कालिमा से इस कदर लिपट गए हो सच के उजाले को झुट्लाते हो जो है नहीं वो प्यारा हो गया है जो है नहीं उससे लगाव इतना हो गया है जो अपना है उसे अपनाते ही लगता है तुम्हे महत्त्व अपना खो दोगे पर जान लो आज जो बोवोगे कल को वो ही पावोगे !
59. लहर - लहर लहराती शीतलहरी आई चुपके - चुपके साथ - साथ बूंदा - बांदी लाई कन - कन करती पछुवयिया भी बही बच्चे बूढों की हड्डी कंपाती चली थर - थर पत्ते भी हैं काँप रहे सिमट - सिमट कर कुत्ते भी अलाव के पास बैठ रहे श्रृष्टि की अनमोल कृति लावारिस कुत्तों से परास्त हो दूर छिटक कर ही आग के होने की अनुभूति से अपने तन को सेंक रहे कुछ मस्नदों में भी ठिठुर रहे कुछ चिथरों में भी विहंस रहे लहर - लहर ----------------- ठिठुरती - ठिठुरती सर्दी लायी आग को अमृत बनायी ' राम ' चौक पर बैठ घुर सेंक रहे ' रावण ' लंका में बैठा हीटर ताप रहा लहर - लहर क्या शीतलहरी आई आलसी के जानो पे बन आई कर्मठों की आन पर बन आई लहर - लहर लहराती शीतलहरी आई !