६१.
' मैं '
' मैं ' हूँ
मेरा न कोई शब्द है
न ही शब्दों का
कोई अर्थ है
भयावह शाम का
एक अनछुआ जलन है
शब्दों को उनके
खोज - खोज कर
थक गया हूँ
मेरा ' मैं '
शायद पकड़ लिया था
उनके शब्दों को
जिसका न
कोई रूप था न रंग था
अर्थहीन मेरे जीवन की तरह
शायद उनके ओ शब्द थे
जौहरी तो
कीमत ही लगाता रहा
लुटेरा लूट कर चला गया
अँधेरी रात में
शायद छत से कूद कर
शून्य आकाश
केवल साक्षी था
और सुबह का सूरज
उसके खून से लतफत था
उसके शब्दों के खून
बेतरतीब फैल गए थे
आकाश भी मैला हो गया था
शायद वजह यही थी
शाम भी धुंधला हो गया था
वे शब्दों के तस्वीर
पाने के लिए भटक रहे थे
मेरा ' मैं '
सिर्फ शब्दों के
वजूद को ढूंढ़ रहा था
लुटेरा कूद चूका था
शब्द मूर्ति को लेकर
घुटने उसके छिल गए थे
खून के दाग
उसके दामन पर
बेतरतीब फैल गए थे
' सवेरा ' की सुबह
वो लुटेरा निगल गया
तारे साक्षी रहे
पर सूरज खिसक गया !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' - २८-०२-१९८४ - १०-०५ pm
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें