६०.
मैं जब बोलता हूँ
तुम कान बंद कर लेते हो
मैं जब देखने को कहता हूँ
तुम आँख बंद कर लेते हो
अपने को भूले रहने में ही
आनन्द तुम को आता है
हाल जब तुम्हारा यह है
जब भी पहचान तुम्हारा
तुम से ही कराता हूँ
खुद को पहचान नहीं पाते हो
लिपटी हुई वस्तुओं से
तुम इतनी त्रस्त हो
अपने ही सत्य को
जानने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हो
असत्य की कालिमा से
इस कदर लिपट गए हो
सच के उजाले को
झुट्लाते हो
जो है नहीं
वो प्यारा हो गया है
जो है नहीं उससे लगाव इतना हो गया है
जो अपना है
उसे अपनाते ही
लगता है तुम्हे महत्त्व अपना खो दोगे
पर जान लो आज जो बोवोगे
कल को वो ही पावोगे !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' - २६-१२-१९८३ - समस्तीपुर -
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