मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

235 . क्या औचित्य था


235 .

क्या औचित्य था 
हम मिले थे 
पर क्या यह मिलन था 
था एक समझौता 
मिलन तो शायद 
संभव भी न था 
मुझे पूर्ण विश्वास था 
हम नदी के दो किनारे 
हाँ तुम्हे शायद 
कुछ लेना था 
मेरे 
निरन्तर प्रवाह को 
रोकना था 
एक पूल के सहारे 
तुमने मुझसे 
जोड़ लिए अपने किनारे 
पर यह गठबंधन 
कितना सुदृढ़ था 
सही अनुमान तुम्हे ही था 
मेरा अनुमान 
शायद मेरे स्वार्थ पर 
आधारित था 
और मैं धोखा खा गया 
मेरे किनारे को 
नदी का प्रवाह 
निरंतर काट रही थी 
शायद इसी का 
तुझे डर था 
तोड़ लिया 
तूने पूल का वो गठबंधन 
अब मेरा किनारा 
अपने छाती पे 
कोई पूल होने नहीं देना चाहते 
जानती है 
हर पल का 
यही हश्र होता है 
हम फिर 
अपने यथार्थ पे आ गए हैं 
और कभी 
न मिलने वाली 
नदी के दो किनारे 
बन गए हैं 
तेरे दुनियां में 
मैं तुझ सा न बन सका 
तेरे दुनियाँ के लायक न रहा 
पहले भी तन्हा था 
फिर से तन्हा हो गया 
इस बार तो 
तेरे सम्बन्ध का दाग 
मुझे 
मेरे दुनियाँ के लायक भी 
न छोड़ा 
मैं खामोश हो गया हूँ 
अपने सच को जानकर 
न जब्त होने वाला दर्द 
बन के मेरी कवितायें  
बिना मस्तिष्क की दुनियां में 
गूंगी आवाज बन चीख रही है !

सुधीर कुमार " सवेरा "    01-05-1984    01-15 pm 

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