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झाँका बहुत औरों में खुद में झांक न पाया
मन मंदिर में झाँका तो माँ का अक्श नज़र आया
खंडित मन खंडित ध्यान खंडित चाँद उगे
और बढ़ा आगे तो खंडित प्राण हुए
जब - जब पग अग्रसर हुए प्रगति पथ पर
अंतर में अभिमान भगवान में पत्थर नज़र आया
गैरों ने जिल्लत अपनों ने धोखा दिया
पर माँ तूने शंकर बन मेरा गरल पीया
आँसू भरे नैनों ने जब तुझको पुकारा तो
कण - कण में माँ तेरा ही रूप नज़र आया
वासना के घेरे में प्यार बहुत बदनाम हुआ
झूठे तृष्णा में मैं गुमनाम भटकता रहा
पर मन ने जिस दिन धोये तृष्णा गंगाजल से
जीवन पूर्ण बना अंतर में प्राण नज़र आया
आँखों ने सीखा सिर्फ बुरा का अवलोकन करना
जीभ ने सीखा सिर्फ औरों की निंदा करना
प्रज्ञा चक्षु जब खुले माँ अभ्यंतर में
माँ चेतन रूप तेरा ही नजर आया
जब बुद्धि ने आत्म तत्व को अवगाहा
चेतना जब चेतन से मिलने को चाहा
जाग गयी कुंडली सब तम मिटा
इस लघु घट में माँ तेरा स्थान नजर आया
षठ रस से सनी सृष्टि
कविता में है होती नव रस की वृष्टि
जहाँ हम भी एक रस
कण - कण में रस
और है एक माँ
महिमामयी महा रस !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
झाँका बहुत औरों में खुद में झांक न पाया
मन मंदिर में झाँका तो माँ का अक्श नज़र आया
खंडित मन खंडित ध्यान खंडित चाँद उगे
और बढ़ा आगे तो खंडित प्राण हुए
जब - जब पग अग्रसर हुए प्रगति पथ पर
अंतर में अभिमान भगवान में पत्थर नज़र आया
गैरों ने जिल्लत अपनों ने धोखा दिया
पर माँ तूने शंकर बन मेरा गरल पीया
आँसू भरे नैनों ने जब तुझको पुकारा तो
कण - कण में माँ तेरा ही रूप नज़र आया
वासना के घेरे में प्यार बहुत बदनाम हुआ
झूठे तृष्णा में मैं गुमनाम भटकता रहा
पर मन ने जिस दिन धोये तृष्णा गंगाजल से
जीवन पूर्ण बना अंतर में प्राण नज़र आया
आँखों ने सीखा सिर्फ बुरा का अवलोकन करना
जीभ ने सीखा सिर्फ औरों की निंदा करना
प्रज्ञा चक्षु जब खुले माँ अभ्यंतर में
माँ चेतन रूप तेरा ही नजर आया
जब बुद्धि ने आत्म तत्व को अवगाहा
चेतना जब चेतन से मिलने को चाहा
जाग गयी कुंडली सब तम मिटा
इस लघु घट में माँ तेरा स्थान नजर आया
षठ रस से सनी सृष्टि
कविता में है होती नव रस की वृष्टि
जहाँ हम भी एक रस
कण - कण में रस
और है एक माँ
महिमामयी महा रस !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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