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परन्तु ऐसा ही होता है
बेबस बेजान बनकर
घुन खाता ही रहता है
नासमझ अनजान बनकर
चंद अल्फाजों के सहारे
जिन्दगी बोझ बनती रहती है रह - रह कर
मुड़ - मुड़ कर देखने की तमन्ना कौन करता है
जीने की आशा का दीप हाथ में लेकर
चक्रव्यूह में फँस जाता है इंसान
काल का ग्रास बनकर
पथ का प्रदर्शक विलीन हो जाता है
रह जाता है मात्र पद - चिन्ह बनकर
पथिक ही भटक जाता है
पद चिन्हों पे चल - चल कर
भूला और भटका ही देखता है
मुड़ - मुड़ कर रह - रह कर
आता है जब निकट यथार्थ के
चिल्लाता है आजाद कर - आजाद कर
आजादी नहीं है नाम किसी के
तुम भी आजाद हो खोलो खिड़की
देखो बाहर झाँक कर
सुसुप्ता अवस्था में लगता सपना है
जाग्रत में रह जाता है जो सच बनकर
तब फिर होता है क्या वो मर कर
सच - सच है वो जब हो
होता है शास्वत चिरस्थाई बनकर
वृक्ष देता है फल बढ़कर
नर देता है कुछ खोकर
स्वार्थ भी होता है छोटा बड़ा
बड़ा स्वार्थ कहलाता है निःस्वार्थ बनकर
जन्म लेते ही लेता चला जाता है कर्ज
मोक्ष भी क्या मिलेगा मरकर
जिन्दगी हसीं बनाना चाहता है कौन नहीं ?
लेकिन रह जाता है बोझ बनकर
जिन्दगी जन्नत है उसी की
जो रहते नहीं किसी में भी रहकर
मानव औरों में उलझकर समझ नहीं पाता खुद को
खुद रह जाता है उलझी हुई गुथी बनकर
जिन्दगी के हर पल को औरों के हवाले कर
इंसान रह जाता है प्यार का एक दरिया बनकर
कहने को सचाई होती है कितनी
होने को रह जाती है सपना बनकर
रगों में बहता खून चिल्लाता है जब
मज़बूरी का चादर रह जाता है लिपटकर !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३०-१०-१९८०
परन्तु ऐसा ही होता है
बेबस बेजान बनकर
घुन खाता ही रहता है
नासमझ अनजान बनकर
चंद अल्फाजों के सहारे
जिन्दगी बोझ बनती रहती है रह - रह कर
मुड़ - मुड़ कर देखने की तमन्ना कौन करता है
जीने की आशा का दीप हाथ में लेकर
चक्रव्यूह में फँस जाता है इंसान
काल का ग्रास बनकर
पथ का प्रदर्शक विलीन हो जाता है
रह जाता है मात्र पद - चिन्ह बनकर
पथिक ही भटक जाता है
पद चिन्हों पे चल - चल कर
भूला और भटका ही देखता है
मुड़ - मुड़ कर रह - रह कर
आता है जब निकट यथार्थ के
चिल्लाता है आजाद कर - आजाद कर
आजादी नहीं है नाम किसी के
तुम भी आजाद हो खोलो खिड़की
देखो बाहर झाँक कर
सुसुप्ता अवस्था में लगता सपना है
जाग्रत में रह जाता है जो सच बनकर
तब फिर होता है क्या वो मर कर
सच - सच है वो जब हो
होता है शास्वत चिरस्थाई बनकर
वृक्ष देता है फल बढ़कर
नर देता है कुछ खोकर
स्वार्थ भी होता है छोटा बड़ा
बड़ा स्वार्थ कहलाता है निःस्वार्थ बनकर
जन्म लेते ही लेता चला जाता है कर्ज
मोक्ष भी क्या मिलेगा मरकर
जिन्दगी हसीं बनाना चाहता है कौन नहीं ?
लेकिन रह जाता है बोझ बनकर
जिन्दगी जन्नत है उसी की
जो रहते नहीं किसी में भी रहकर
मानव औरों में उलझकर समझ नहीं पाता खुद को
खुद रह जाता है उलझी हुई गुथी बनकर
जिन्दगी के हर पल को औरों के हवाले कर
इंसान रह जाता है प्यार का एक दरिया बनकर
कहने को सचाई होती है कितनी
होने को रह जाती है सपना बनकर
रगों में बहता खून चिल्लाता है जब
मज़बूरी का चादर रह जाता है लिपटकर !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३०-१०-१९८०
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