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कैसी अबूझ पहेली हो तुम
रूप रस जवानी की प्रतिमा हो तुम
तेरे बगैर अब हर एक पल
साँसों का मुझ पर बढ़ता है बोझ
तेरे विरह में बादल दो बह नदियाँ बनी
पग मेरे हो रहे हैं कमजोर
तन्हाई का बढ़ रहा है जोड़
बहारें चुप हैं
सावन रोती
विरह के गीत
चकोर हैं गाते
छुप गई चंदा
छोड़ गई है चाँदनी
दर्पण देख लगती है हँसी
शायद मैं हूँ वही
जो था कभी
मनचाहा मन अब अनचाहा है
मखमल के भी सेज
बनी काँटों की शैय्या है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 10-06-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से
कैसी अबूझ पहेली हो तुम
रूप रस जवानी की प्रतिमा हो तुम
तेरे बगैर अब हर एक पल
साँसों का मुझ पर बढ़ता है बोझ
तेरे विरह में बादल दो बह नदियाँ बनी
पग मेरे हो रहे हैं कमजोर
तन्हाई का बढ़ रहा है जोड़
बहारें चुप हैं
सावन रोती
विरह के गीत
चकोर हैं गाते
छुप गई चंदा
छोड़ गई है चाँदनी
दर्पण देख लगती है हँसी
शायद मैं हूँ वही
जो था कभी
मनचाहा मन अब अनचाहा है
मखमल के भी सेज
बनी काँटों की शैय्या है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 10-06-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से
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