सोमवार, 15 दिसंबर 2014

359 .घर में आया

३५९ 
घर में आया 
लाल रंग का सोफ़ा 
किसी ने समझा उधार का 
किसी ने समझा मारे हुए माल का 
और समझा इसे किसी ने  
दहेज़ का तोहफा 
आया जो हमारे घर एक सोफ़ा 
हर्ष में डूबा हम सब का मन 
रंगत बदला घर का 
हाल वही है हमारे जेब का 
लोगों ने समझा ना जाने क्या - क्या 
सर उठा के आते थे 
कभी जो तगादा करने 
आज गुजरते हैं दर से 
अपने नजरों को चुरा के 
बहुत एहसानमंद है दिल मेरा 
कबूल कर ऊपर वाले का ये तोहफा 
आया हमारे घर में एक सोफ़ा !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०६ - १० - १९८४ 
१२ - ४० pm 

358 .सभी उत्तमता की ही

३५८ 
सभी उत्तमता की ही 
रखा करते हैं आशा 
ढूंढ लिया है शायद 
सबों ने स्वर्ग का रास्ता 
यही वजह है 
मुंह के बल 
गिर रहे हैं सभी 
पता ही किंचित 
गलत हो शायद 
या हो वह गलत 
जिसने भी 
बतलाया हो यह रास्ता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०८ - १९८४ 

रविवार, 14 दिसंबर 2014

357 .पल वो

३५७ 
पल वो 
हमने तुमने जिया था जो 
इस कदर गुजर गया 
पास ग़मों को छोड़ गया 
हमने तुमने लाख चाहा 
मिलन के बदले पर जुदाई पाया 
मेरे साँस ले लो 
मुझे तुम अपने 
सांसो का जहर मत दो 
ऐ वक्त 
एक एहसान कर 
खामोश मेरी जुबाँ कर 
अच्छा था तुम सोये थे 
मैं ही न था 
मात्र विवेक से 
आज तूँ है 
पर मैं ही न हूँ 
सब कुछ से 
तेरी जिंदगी 
तुझ पर 
मेरा ही एहसान है 
वर्ना 
जानते हैं सभी 
बेवफाई की सजा 
सिर्फ एक मौत है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०५ - ०८ - १९८४ 

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

356 . क्या करूँ अर्पण मैं

३५६ 
क्या करूँ अर्पण मैं 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
तोड़ कर तेरे सुमन से 
पुष्प करता हूँ अर्पण तुम्हे 
दर्द की खुशबु है जिसमे 
गम की रंगीन पंखुरियाँ 
विश्वासघात के पत्तों से 
उसकी है हर शाख हरी 
धोखे और स्वार्थ से 
जिसकी हर गाँठ भरी  
सादर समर्पित है 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
और क्या करूँ अर्पण तुम्हे 
कुछ भूली मुस्कान 
कुछ रूठे अरमान 
यादों के कफ़न से लिपटी 
बेशुमार ख़ुशी और गम को 
अपने आदर्शों के टूटते 
हर साँस को 
अपने ईमानदारी और 
चरित्र के नाम बने 
बदनामी के कागज के फूलों को 
शत - शत समर्पित करता हूँ 
ऐ मेरे जीवन तुम्हे 
करता हूँ अर्पण 
आखरी मौत अपनी तुम्हे 
इसका सदा मुझे 
काफी अफ़सोस रहेगा 
सूरज भी नहीं 
एक दीपक की 
लौ की तमन्ना थी तुम्हे 
मैं जुगनू भी 
तेरे आँगन में 
न चमका सका 
मैं खारों से ही सदा 
रहा खेलता 
पर तुझे 
एक सुखी गुलाब भी 
न दे सका 
कोई प्यास न थी 
बस छोटी सी एक आस थी 
अकिंचन आस का 
वो कतरा भी 
न कर सका अर्पण तुम्हे 
ऐ मेरे जीवन 
भूल जाना तूँ मुझे 
भूले से भी गर 
जो आऊँ याद तुम्हे 
करना न कभी माफ़ मुझे 
बस यही वादा 
करता हूँ अर्पण तुम्हे !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०४ - ०७ - १९८४ 
०४ - ३० pm 

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

355 .हर पल कालिमा से घिरा

३५५ 
हर पल कालिमा से घिरा 
बलात्कार कर जाता है 
मानव का समुदाय यह 
गर्भ कर जाता है 
नाजुक गर्भ में मेरे 
कोमल विचारों के भ्रूण पलते हैं 
गर्भपात तुम्हे मेरा कराना है 
हर पल धिक्कारों के बोल देते 
दुत्तकारों फटकारों के साथ 
असह्य प्रसव पीड़ा मैं सहता 
करो जुल्म जितना तुम कर सकते 
नए विचारों को जन्मूंगा 
ऐसा मेरा मन कहता 
काँप - काँप जाता 
तन बदन सारा 
सह लिया जब पीड़ा इतनी 
कभी न अपने मन को मारा 
असफलताओं की सीढ़ी 
सामने आती चली गयी 
कदम फिर भी न हारे 
हादसे आये जो तुम चली गयी 
हर चौराहे पे आके 
साथ सब छोड़ गए 
दिशाविहीन हो खुद से 
पाँव उठते चले गए 
तेरे अत्याचार से 
बाहर जो निकला सारा 
ये तुम समझो अब 
वो कचरा है या हीरा 
मेरे कविता में बंद 
मेरे अरमानो के फूल 
हर शब्द एक आग 
अधर में गए झूल 
व्याकुल मन बस चुपचाप 
एक आँच है सुलगती 
दिल के ही जलने से 
कविता की आत्मा है बनती 
बस तड़पन और घुटन 
इस शहर में हर तरफ 
मानवता का नंगा नाच 
जिधर भी देखो हर तरफ 
सीने में एक जलन 
तन्हा जिंदगी के गुजारिश में 
भीड़ में कुचलता हुआ सा 
गुजरूं मैं इस शहर में 
हर शख्स घूम रहा 
सीने में तूफान लिए 
मैं घूम रहा हूँ 
जन्म का अपमान लिए 
जुल्म के तवा पर 
बनकर रहते सभी शाद 
सेंक कर स्वार्थ की रोटी
कहलाते नहीं कोई नाशाद 
एक पुरदर्द सीने में आह 
बिना कफ़न के 
मजार बन सड़कों पे घूमता 
जल जाता बिना आग के 
मेरे रीढ़ की हड्डी में 
सड़ रही है मज्जा 
खुदा का कहर बरपा 
सर ऊपर है नहीं छज्जा 
हर सपने में 
भविष्य है जलता 
काँपते वर्तमान से 
एक कदम नहीं चला जाता 
जिंदगी से कभी भी 
हमें तो प्यार न  था 
मौत भी इस कदर तरसाएगी 
इसका एतवार न था 
कफ़न के पैसे भी नहीं जुटते 
जिंदगी भला कैसे जी पाएंगे 
मौत गर आ भी गयी 
बिना कफ़न के कैसे भला मर पाएंगे 
या रब बस इतना रहम कर 
हमें इंसानो से दूर रख 
फिर तेरा जहाँ जी चाहे 
जमीन या आसमान पर रख 
तेरी एक नजर की चाहत में ही 
शायद हम मर जायेंगे 
दिल से तुझे जुदा 
शायद कभी न कर पाएंगे 
कर्ता को क्रिया के साथ 
तूँ न कभी जोड़ पायेगा 
एक आँख का मालिक 
सबको भला कैसे देख पायेगा !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता 
११ - ३५ pm   

354 . शाम लाख गहराती है

३५४ 
शाम लाख गहराती है 
पर गोधूलि का वो एहसास कहाँ 
बुजुर्ग लाख मिलेंगे 
बुजुर्गियत का एहसास कहाँ 
मानव ही मानव बिखरा पड़ा 
मानवता का एहसास कहाँ 
जवानी आकर 
गम और तक़दीर की लड़ाई में 
ना जाने आई कब और चली गयी 
कहने को जवान हैं 
जवानी का एहसास कहाँ 
पहले दूर से देख कर भी 
देह सिहर उठते थे 
एक रोमांच भरा सिहरन 
सारे बदन में तैर जाता था 
अब सड़कों पे 
गाड़ी और रेलों में 
बदन से बदन सटता है 
अंग पे अंग धंसता है 
और वक्त यूँ गुजर जाता है 
न भावना को 
न तन न मन को 
यौवन के मादकता का एहसास होता है 
मिलते हैं सटते हैं 
बेखुदी में सब होता है 
सुबह होती है शाम होती है 
हम वहीं हैं 
पर एहसास कहाँ होता है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०६ - १९८४ कोलकाता 
९ - २० pm  

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

353 .तब तूँ किसी और की हो चुकी थी

३५३ 
तब तूँ किसी और की हो चुकी थी 
बहुत बाद तब जो तुझे देखा था मैंने 
ना जाने तूँ किस हसीन दुनियाँ में खो चुकी थी 
पर तब तेरे उस सुरमयी नैनो की शाम 
' सवेरा ' की जिंदगी को बना रही थी नाकाम 
पर ना जाने तेरी तब क्या चाहत थी 
होंठो पे तेरे फिर भी नाजुक हंसी के फूल थे 
लब मेरे सूखे थे आँखें मेरी भींगी थी 
तुम कुछ इतरा कर लोगों को दिखा रही थी 
मैं तो तेरा कुछ नहीं वो तो तेरी फितरत थी !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०६ - १९८४ कोलकाता 
१२ - ४५ pm 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

352 .शंकाकुल ये मन

३५२ 
शंकाकुल ये मन 
असंतुलित ये जीवन पथ 
स्वाभाविक संकोच 
हर लेते जीवन के सच 
यथार्थ से सर्वदा दूर 
भविष्य हो जाता क्रूर 
कल्पनातीत भविष्य 
दिखाता महा दुर्भिक्ष !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

351 .मैं शून्य हूँ

३५१ 
मैं शून्य हूँ 
गुण अवगुण रूपी अंक 
मेरे नहीं 
मैं तो शून्य था शून्य हूँ 
ये अंक तेरे बिठाये हुए हैं 
मैं शून्य 
जैसे सूना आकाश 
मैं शून्य 
जैसे पृथ्वी का आकर 
निर्विकार निराकार 
निर्गुण निराधार 
मेरा न कोई रूप है 
ना ही कोई आकर 
यहाँ नहीं कोई विकार 
मैं शून्य हूँ 
शून्य ही है मेरा आकार 
शून्य की पहचान में 
समाविष्ट सब मुझ में 
शून्य को पाकर 
स्वामी विवेकानंद हूँ मैं 
परब्रह्म का 
हूँ मैं रूपाकार 
जिन - जिन धर्मों का 
जिन - जिन कर्मो का 
जिस ज्ञान का जिस विज्ञानं का 
इक्षा  हो 
करलो मुझ में साक्षात्कार 
पर लोग अक्सर आपस की प्रीत 
गैरों की बातों में आकर तोड़ देते हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता 

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

350 .मौन का हर कतरा

३५० 
मौन का हर कतरा 
एकांत के हर ख्याल 
तेरे साथ 
जुड़े होते हैं
तूने बहुत हिम्मत की 
मुझसे बेवफाई कर 
दूर मुझसे चली गयी 
पर तेरी इतनी 
बिसात कहाँ 
मेरे दिल से 
मेरे ख्यालों से 
मेरे यादों से 
तूँ दूर चली जा 
भागते - भागते 
तेरे पाँव दुःख जायेंगे 
मुझे भूलते - भूलते 
तेरे जीवन कट जायेंगे 
सारा प्रयत्न 
तेरा व्यर्थ हो जायेगा 
मेरे यादों से दूर 
तुझे नहीं रहा जायेगा 
सिर्फ एक मौत 
जो आ जाये 
शायद तेरे ख्यालों से 
जुदा कर पाये 
और लग जाये तब 
संबंधों का पूर्ण विराम !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

349 .आओ मेरे पास

३४९ 
आओ मेरे पास
मुझे तेरा ही है इंतजार 
तुम न आओगे 
आएगा कौन मेरे पास 
मृदु पवन के ले सहारे 
खुशबु गर नाकों में समाये 
लगे पास ही कहीं 
जुल्फों को खोले 
तूँ खड़ी हो 
या खनक कोई सुनाई दे 
तेरे ही पायल की झनक लगे 
तेरे लोच पूर्ण चालों से 
हवा की लोचकता भी शरमाये 
कोई संगीत 
दिल को छुए 
लगे तेरी हंसी
फिजा में कहीं गूंजे हों 
हर खिलती कलियों पे 
तेरी मुस्कान लहराए 
हर आहट के बाद शांत और खामोश 
तेरे न आने का संकेत 
और इंतजार फिर इंतजार 
कल्पना में डूबते ही 
तेरे आने की आशंका 
और पापी मन की आवाज 
तुम जरूर आओगी 
पर शायद यहाँ नहीं 
जीवन के उस पार !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११ - ०६ - १९८४ 
९ - ३० am   

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

348 .मेरा सत्य मुझे धोखा दे गया

३४८ 
मेरा सत्य मुझे धोखा दे गया 
समाज के सबसे बड़े 
असत्य रूपी सत्य को 
न स्वीकारने के कारण 
मैं अपने सत्य के लिए 
रेगिस्तान में 
एक बूँद अपने 
सत्य के खातिर 
भटक रहा हूँ 
मेरा सत्य 
मुझे हर चौराहे पर 
जलील कर रहा है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '०३ - ०६ - १९८४ राँची 
२ - ११ pm 

347 .आओ - आओ

३४७ 
आओ - आओ 
बाहर झाँको 
ऊँचे - ऊँचे 
घरों को देखो ऊँचे लोग 
बड़े - बड़े लोग हैं ये 
सुन के इनके बड़े - बड़े बोल
चा s s प s s ड़ s s ची s s पु s s ड़ s s s 
ना s s स s s रे s s पी s s चु s s प s s तूँ s s s 
लड़ते झगड़ते 
इनके देखो दिन बीते 
खोलें एक दूसरे की पोल 
ये हैं बड़े - बड़े लोग 
नाम हैं इनके जितने ऊँचे 
महल है देखो जितने बड़े 
काम करे हैं ये उतने ओछे !

सुधीर कुमार ' सवेरा '