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शाम लाख गहराती है
पर गोधूलि का वो एहसास कहाँ
बुजुर्ग लाख मिलेंगे
बुजुर्गियत का एहसास कहाँ
मानव ही मानव बिखरा पड़ा
मानवता का एहसास कहाँ
जवानी आकर
गम और तक़दीर की लड़ाई में
ना जाने आई कब और चली गयी
कहने को जवान हैं
जवानी का एहसास कहाँ
पहले दूर से देख कर भी
देह सिहर उठते थे
एक रोमांच भरा सिहरन
सारे बदन में तैर जाता था
अब सड़कों पे
गाड़ी और रेलों में
बदन से बदन सटता है
अंग पे अंग धंसता है
और वक्त यूँ गुजर जाता है
न भावना को
न तन न मन को
यौवन के मादकता का एहसास होता है
मिलते हैं सटते हैं
बेखुदी में सब होता है
सुबह होती है शाम होती है
हम वहीं हैं
पर एहसास कहाँ होता है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०६ - १९८४ कोलकाता
९ - २० pm
शाम लाख गहराती है
पर गोधूलि का वो एहसास कहाँ
बुजुर्ग लाख मिलेंगे
बुजुर्गियत का एहसास कहाँ
मानव ही मानव बिखरा पड़ा
मानवता का एहसास कहाँ
जवानी आकर
गम और तक़दीर की लड़ाई में
ना जाने आई कब और चली गयी
कहने को जवान हैं
जवानी का एहसास कहाँ
पहले दूर से देख कर भी
देह सिहर उठते थे
एक रोमांच भरा सिहरन
सारे बदन में तैर जाता था
अब सड़कों पे
गाड़ी और रेलों में
बदन से बदन सटता है
अंग पे अंग धंसता है
और वक्त यूँ गुजर जाता है
न भावना को
न तन न मन को
यौवन के मादकता का एहसास होता है
मिलते हैं सटते हैं
बेखुदी में सब होता है
सुबह होती है शाम होती है
हम वहीं हैं
पर एहसास कहाँ होता है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०६ - १९८४ कोलकाता
९ - २० pm
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