३५५
हर पल कालिमा से घिरा
बलात्कार कर जाता है
मानव का समुदाय यह
गर्भ कर जाता है
नाजुक गर्भ में मेरे
कोमल विचारों के भ्रूण पलते हैं
गर्भपात तुम्हे मेरा कराना है
हर पल धिक्कारों के बोल देते
दुत्तकारों फटकारों के साथ
असह्य प्रसव पीड़ा मैं सहता
करो जुल्म जितना तुम कर सकते
नए विचारों को जन्मूंगा
ऐसा मेरा मन कहता
काँप - काँप जाता
तन बदन सारा
सह लिया जब पीड़ा इतनी
कभी न अपने मन को मारा
असफलताओं की सीढ़ी
सामने आती चली गयी
कदम फिर भी न हारे
हादसे आये जो तुम चली गयी
हर चौराहे पे आके
साथ सब छोड़ गए
दिशाविहीन हो खुद से
पाँव उठते चले गए
तेरे अत्याचार से
बाहर जो निकला सारा
ये तुम समझो अब
वो कचरा है या हीरा
मेरे कविता में बंद
मेरे अरमानो के फूल
हर शब्द एक आग
अधर में गए झूल
व्याकुल मन बस चुपचाप
एक आँच है सुलगती
दिल के ही जलने से
कविता की आत्मा है बनती
बस तड़पन और घुटन
इस शहर में हर तरफ
मानवता का नंगा नाच
जिधर भी देखो हर तरफ
सीने में एक जलन
तन्हा जिंदगी के गुजारिश में
भीड़ में कुचलता हुआ सा
गुजरूं मैं इस शहर में
हर शख्स घूम रहा
सीने में तूफान लिए
मैं घूम रहा हूँ
जन्म का अपमान लिए
जुल्म के तवा पर
बनकर रहते सभी शाद
सेंक कर स्वार्थ की रोटी
कहलाते नहीं कोई नाशाद
एक पुरदर्द सीने में आह
बिना कफ़न के
मजार बन सड़कों पे घूमता
जल जाता बिना आग के
मेरे रीढ़ की हड्डी में
सड़ रही है मज्जा
खुदा का कहर बरपा
सर ऊपर है नहीं छज्जा
हर सपने में
भविष्य है जलता
काँपते वर्तमान से
एक कदम नहीं चला जाता
जिंदगी से कभी भी
हमें तो प्यार न था
मौत भी इस कदर तरसाएगी
इसका एतवार न था
कफ़न के पैसे भी नहीं जुटते
जिंदगी भला कैसे जी पाएंगे
मौत गर आ भी गयी
बिना कफ़न के कैसे भला मर पाएंगे
या रब बस इतना रहम कर
हमें इंसानो से दूर रख
फिर तेरा जहाँ जी चाहे
जमीन या आसमान पर रख
तेरी एक नजर की चाहत में ही
शायद हम मर जायेंगे
दिल से तुझे जुदा
शायद कभी न कर पाएंगे
कर्ता को क्रिया के साथ
तूँ न कभी जोड़ पायेगा
एक आँख का मालिक
सबको भला कैसे देख पायेगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता
११ - ३५ pm
हर पल कालिमा से घिरा
बलात्कार कर जाता है
मानव का समुदाय यह
गर्भ कर जाता है
नाजुक गर्भ में मेरे
कोमल विचारों के भ्रूण पलते हैं
गर्भपात तुम्हे मेरा कराना है
हर पल धिक्कारों के बोल देते
दुत्तकारों फटकारों के साथ
असह्य प्रसव पीड़ा मैं सहता
करो जुल्म जितना तुम कर सकते
नए विचारों को जन्मूंगा
ऐसा मेरा मन कहता
काँप - काँप जाता
तन बदन सारा
सह लिया जब पीड़ा इतनी
कभी न अपने मन को मारा
असफलताओं की सीढ़ी
सामने आती चली गयी
कदम फिर भी न हारे
हादसे आये जो तुम चली गयी
हर चौराहे पे आके
साथ सब छोड़ गए
दिशाविहीन हो खुद से
पाँव उठते चले गए
तेरे अत्याचार से
बाहर जो निकला सारा
ये तुम समझो अब
वो कचरा है या हीरा
मेरे कविता में बंद
मेरे अरमानो के फूल
हर शब्द एक आग
अधर में गए झूल
व्याकुल मन बस चुपचाप
एक आँच है सुलगती
दिल के ही जलने से
कविता की आत्मा है बनती
बस तड़पन और घुटन
इस शहर में हर तरफ
मानवता का नंगा नाच
जिधर भी देखो हर तरफ
सीने में एक जलन
तन्हा जिंदगी के गुजारिश में
भीड़ में कुचलता हुआ सा
गुजरूं मैं इस शहर में
हर शख्स घूम रहा
सीने में तूफान लिए
मैं घूम रहा हूँ
जन्म का अपमान लिए
जुल्म के तवा पर
बनकर रहते सभी शाद
सेंक कर स्वार्थ की रोटी
कहलाते नहीं कोई नाशाद
एक पुरदर्द सीने में आह
बिना कफ़न के
मजार बन सड़कों पे घूमता
जल जाता बिना आग के
मेरे रीढ़ की हड्डी में
सड़ रही है मज्जा
खुदा का कहर बरपा
सर ऊपर है नहीं छज्जा
हर सपने में
भविष्य है जलता
काँपते वर्तमान से
एक कदम नहीं चला जाता
जिंदगी से कभी भी
हमें तो प्यार न था
मौत भी इस कदर तरसाएगी
इसका एतवार न था
कफ़न के पैसे भी नहीं जुटते
जिंदगी भला कैसे जी पाएंगे
मौत गर आ भी गयी
बिना कफ़न के कैसे भला मर पाएंगे
या रब बस इतना रहम कर
हमें इंसानो से दूर रख
फिर तेरा जहाँ जी चाहे
जमीन या आसमान पर रख
तेरी एक नजर की चाहत में ही
शायद हम मर जायेंगे
दिल से तुझे जुदा
शायद कभी न कर पाएंगे
कर्ता को क्रिया के साथ
तूँ न कभी जोड़ पायेगा
एक आँख का मालिक
सबको भला कैसे देख पायेगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता
११ - ३५ pm
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