सोमवार, 28 मई 2012

71. गीत गायी गयी थी

७१.
गीत गायी गयी थी 
चिराग के आते ही
सूरज खिला हुआ था
भविष्य बहुत व्यथित था
कगार पर इंसान खड़ा था
अंकुरित बिज बढ़ा था
जिसे हर बसंत में
पतझर ही मिला था
ठुंठ सा बढ़ता हुआ
जड़ जिसका विवादपूर्ण था
फल की भी आशा थी
मानव का इतिहास रचा गया
जबरदस्ती शाखाओं पर
निकलने की नाकाम चेष्टा 
गुडक - मुडक हो गयी
निकलने को थी जब नयी पंखुरियां
निकलती रही केवल व्यथा
डोली सजी थी दो दिलों ने चीखा
दोनों का संसार उजड़ा
जैसे ही शहनाइयां बजी थी
मिलन की
जब गीत गायी गयी थी
दो दिलों में
जुदाई की बिगुल बजी थी
बस सुख अरमानों के लिए
जिन्दगी को सड़क पे नापते हुए
एक नए सूरज की आशा लिए
पंख विहीन फरफराहट
यहाँ नहीं
जो चाहा था
मधुर सपनो का संसार
ओ उस पार
नीले - नीले
टीम - टीम करते तारे
बस छाया का एहसास
राख बनने को भी
सज गयी डोली
कन्धों पे चार
गीत तब भी
पर सुनने का सामर्थ कहाँ ?
नजरों को
नजरों से बचाते हुए
गीत गायी गयी थी !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९-०३-१९८४ 
कोलकाता - १२-५० pm  

70.बिच मँझदार में

70.

बिच मँझदार में 
नैया मेरी 
उब - डूब , उब - डूब
झंझावत के थपेड़े से 
चक्रवात में उलझी 
मुझे नष्ट करने को 
नियति 
अपने विशाल नखयुक्त
जहरीले पंजे को फैलाये 
किसी भी पल 
काल का ग्रास 
बनने के लिए 
पंजे के बल 
उचक कर खड़ा है 
हर मुण्ड 
जैसे फन हो 
उन्मादी गुस्से के 
जहरीले फुत्कार से 
डंसने को तैयार है 
तथाकथित इन्सान ही 
किसी शिकारी पशु की तरह 
मेरा जिस्म 
तार - तार करने को तैयार है 
बस एक तुम 
मेरे अन्तरंग 
मेरे सांसों के सरगम 
मेरे जीवन के उमंग 
बस तुम 
सिथिल न होना 
विश्राम न लेना 
सदा मुझे 
अपने जीवन में 
तुम अपनाये रखना 
याद रखना 
भूल न जाना 
हाँ - ओ मेरे प्यार 
मुझे चाहिए बस तेरा प्यार 
रहस्यमयी चादर की तरह 
छाये रहो मेरे चारों तरफ 
तुम मरना नहीं 
मर जाना मेरे मरने के बाद !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-03-1984 
- कोलकाता - 3.02 pm   

रविवार, 27 मई 2012

69.मेरे दृष्टि के बाहर

69.

मेरे दृष्टि के बाहर 
शायद 
अँधेरा ही अँधेरा 
मैं उजाले के साथ 
अँधेरे में भटक रहा 
मेरा ठौर जहाँ 
वहाँ से 
खुद भागता हूँ 
देखता हूँ 
रोटी के 
एक पपड़ी के लिये 
जमीन एक बित्ते के लिए 
जी तो सभी रहे हैं 
पर 
मेरा जीना अलग है 
औरों के लिए 
भ्रान्ति , मृगतृष्णा 
दरारों से आच्छादित 
कंटक युक्त राहें 
देख मैं सब पा रहा हूँ 
खुली रौशनी में 
और नहीं समझेंगे 
चूँकि मैं कोई 
धर्म प्रचारक नहीं 
मुल्ला या फकीर नहीं 
नियति के नाटक में 
मेरा वैसा 
कोई भाग नहीं 
मैं अपने खुली रौशनी में 
किसी से 
कह नहीं सकता 
मुझे तुमसे प्यार नहीं 
गर जो सच्चा प्यार है 
कह नहीं सकता 
मुझे तुमसे प्यार है 
गर जो सच्चा प्यार नहीं 
यही वजह है 
मैं भटक रहा हूँ 
खुली रौशनी में ही 
सभी देखते हैं 
इस कदर मुझे 
जैसे वे देख रहे हों 
किसी अजूबे जानवर को !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 24-03-1984 कोलकाता  3-15 pm 

68. सड़क के किनारे

68.

सड़क के किनारे 
अँधेरी रात में 
जनवरी का महिना 
कड़ाके की ठंढक 
बिजली के दो बड़े खम्भों के बिच 
एक मनुष्य 
पतली मैली चादर से लिपटा 
सोता सा पड़ा हुआ 
पेशाब की बू 
नाली की सड़ांध 
गन्दी मिट्टी का बिछौना 
ऊपर नीला आकाश 
चारों तरफ अँधेरा 
किसी का नहीं सहारा 
यह कोई दर्द की कविता नहीं 
एक हकीकत है 
और इन्सान 
कितना बेबस 
कितना लाचार 
मैंने उसे इस हालत में देखा 
एक संवेदना 
एक सिहरन 
टीस सी मन में उठी 
पर मैं कुछ न कर सका 
सिवाय कागज़ पे 
दो बूंद स्याही के 
संविधान शब्दों के रूप में 
एक बेजान की तरह 
मोटी किताबों के 
कब्र में दफन 
और मानवता 
किसी अतीत की 
कल्पना मात्र ? 

सुधीर कुमार ' सवेरा '

शनिवार, 26 मई 2012

67.मैं अपने


67.

मैं अपने 
एकांत ख्यालों से 
बिखेरता हूँ लावा 
जलन जिससे 
शायद होती हो 
मृतप्राय 
आत्मा से 
जीवन की 
एक कसक सी होती है 
बस 
सफल हुआ 
मेरा एकांत ख्याल 
जिसे मैं बिखेरता हूँ 
नक़ल का 
बस नक़ल 
होता आ रहा है 
असल को तो 
कब छोड़ गये 
बस जीने का भी 
नक़ल किये जा रहे हैं 
बस जिन्दगी 
यूँ ही चुप रहे 
कलम की बस 
निरंतर चप्पू चलती रहे 
सब अवसादों 
जिल्लत और अपमानों को 
मैं पीता रहूँ 
और तन्हाई में 
एकांत ख्यालें निकलती रहें 
नये इन्कलाब का 
समाज देश का नहीं 
बस व्यक्ति का ।

सुधीर कुमार ' सवेरा '  28-03-1984  कोलकाता 3-31pm 

शुक्रवार, 11 मई 2012

66.मान्यताओं का पौधा



66 .
मान्यताओं का पौधा 
बड़ा विशाल हो गया 
परम्परा की जड़ 
मिट्टी को खोद - खोदकर 
अन्दर बहुत अन्दर तक 
औरंगजेब चला गया 
इतिहास खामोश हो गया 
ब्रिटिशशाही कूच कर गई 
पौधा बढ़ा और बढ़ा 
हम ही माली थे 
मौसम बदलता रहा 
नीति का आदर्शों का 
पर पानी न सींच सके 
उगने को आई जब भी 
नयी कोपलें 
शाखाओं पर 
अलबत्ता तोड़ डाले गये 
ठूंठ बेबस बेजान 
जड़ तक ही सीमित रहे 
उसमे उसके प्राण 
रखवाले का दावा 
बस हम करते रहे 
पर न नीर सिंचे 
न खाद डाले 
हमारी जड़ 
सूखती रही 
सड़ती रही 
पर स्पंदन भी 
न हमारे दिल में जागे 
बेखौफ मुस्तैद रहे 
फिर न कोई 
नयी कोपलें निकलें 
स्व को न पहचान सके 
द्वन्द में ही फंसे रहे 
स्वार्थ का मसाला 
लगा इतना चटपटा 
बातों से 
औरों को बहलाते रहे 
और खुद हाथ अपना 
चाटते रहे 
हर घर में 
बीच चौराहे पर 
एसेम्बली में 
न्यायालयों में 
जड़ अपना ही उखाड़ कर 
मेज को सजाते रहे 
सेज को गर्माते रहे 
दिल के किसी कोने में 
हर सच के मासूमियत को 
गांधी के आदर्शों को 
मार्क्स के बच्चे को 
बिना आवाज किये 
गला तराशते रहे ।

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 26-03-1984  कोलकाता 5.45pm    

रविवार, 6 मई 2012

65. न तो तुम जीवित हो


65.

न तो तुम जीवित हो

ना ही तुम मरे हो

कैसा समाज तुम चाहते हो ?

जन समूह से भागते हो

न तुम मर पाते हो

ना ही तुम जी पाते हो

जीवन की

बस तुम छाया हो

सब कुछ अपना ही हो

खुद अपनों के नहीं हो पाते हो

खुदगर्जी पे भी अपने तुमको

घमंड खूब हो जाता हो

बहुत ही सामान्य है

जीवन गर नरकमय हो जाता हो

मानवता का मानवत

कुछ जो तुमको एहसास हो

व्यर्थ के उपदेशों से

फिर पेट सिर्फ क्यों

अपना तुम पालते हो

कलेजा चीर कर

अपना जो तुम देखो

सूरज से भी ज्यादा

जल रहा है वो

जल रहे तुम हो

जल रही तेरी काया है

अपने खूब तुम मजे करो

अपने ख़ुशी के लिए

जान भी तुम

किसी का ले लो

जितनी भी तुम ले सकते हो

तुम पास मेरे ही बैठे हो

जीवित पर निर्जीव हो

स्वार्थ की मार से चूरमुर

रक्तहीन , मॉसहीन , इक्षाहीन

ह्रदयहीन और कांतिहीन

आँखों वाले तुम ही हो

यथार्थ की बस छाया हो

तुम्हारा एक मात्र सुख

तुम्हारा एक मात्र महत्व

स्वार्थ में तुम कैसे हो ?

बाज की तरह

आकाश में उड़ते हो

शिकार पे

इस तरह झपटते हो

खून में लाल तेरी छाती है

लड़ खड़ा कर नीचे जब गिरते हो

एहसास तुम्हे धरातल का

जब कभी भी होता हो

वह तभी होता है जब

नीचे पड़े कठोर चट्टानों पे

तड़पते और छटपटाते हो

जीवन समाप्त कर भी

सच्चाई नहीं समझ पाते हो

उड़ने का आनंद कैसा है

चट्टानों पे जब गिरते हो

बेशक एहसास होता हो

कहानी समाप्त

तुम कैसे हो

तुम धरती पर रेंगने वाले हो

आकाश में नहीं उड़ सकते हो

स्वार्थ के पर काट लो

जीवन देखो जीवन जियो

सच जान लो तुम कैसे हो ?

शायद अधिक शौभाग्यशाली

और काफी समृद्ध हो

किन्तु हृदयहीन स्वार्थी हो

निन्यानवे के फेरे में पड़े हो

शायद तुम्हे लगता हो

तुमने अपनी आत्मा को

हर दिन के लूट खसोट के कबाड़े से

कोना - कोना भर लिया हो

अब आत्मा हीन होकर

जीने के तुम आदि हो

ओह तुम बूढ़े शैतान हो

ओह तुम वकील मक्कार हो

ओह तुम डाक्टर कसाई हो

ओह तुम नेता विश्वासघाती हो

ओह तुम शिक्षक फकैतवाज हो

ओह तुम सब

एक ही थैले के चट्टे - बट्टे हो

तुम जड़ ही नहीं

भावनाहीन मुर्दे हो

जिन्दगी तुम्हारी

सिर्फ एक उहापोह है

एक संदेहयुक्त कम्पन्न है

मनुष्य तुम से दूर है

तुम खुद से दूर हो

तुम कर्तव्य से अलग हो

उत्तरदायित्व की भावना से

वंचित हो

हर शाम इंसानियत का बोद्का

लेकर टेबुल पे बैठ जाते हो

बहन और बेटियों को भी बिठाते हो

इस तरह तुम बड़ा कहलाते हो

तेरे मानसिक दिवालियेपन की हद है

ऐसे ही तुम जी लेते हो

पी - पी कर झींकते हो

जिन्दगी से बस तुम

शिकवा शिकायत ही करते हो

लक्ष्यहीन और आदर्शहीन

जीवन की भयानकता से

तुम शायद दूर बहुत दूर हो

महसूस होगी तुम्हे क्या ?

कब महसूस होगी ?

तूफान कब आएगी ?

कब वो झंझावत उठेगा ?

तेरे आत्मा से विद्रोह करेगा

आत्मा का पुनर्जागरण हो

कब हो सोंचो कैसे हो ?

झूठी मान्यताओं

खंडहर परम्पराओं का अंत
हो
तुम जागो तुम स्वाधीन हो

ऐसा ही लगता है

ह्रास की गंध धरती को घेरे है

ह्रदय में दासता

कायरता समाई हो

काहिली की नर्म जंजीरों ने

तेरे दिमाग को जकड लिया हो

और इस घिनौने जंजाल को

तोड़ सको इसके लिए

तुम क्या करते हो

सबसे बड़ी संख्या तुम्हारी है

पर तुम कितने नगण्य

और छिछले हो

कुंठित तथा कुत्सित भावनाओं को

जब स्वयं तुम स्वर देते हो

मुर्ख हो जो स्वयं में संतुष्ट हो

थका हारा घिसा एक कलम मेरा

शायद एक यही असंतुष्ट हो

ओ लेखकों , संपादकों , बुद्धिजीवियों
ओ ! समाज के ठेकेदारों

किस तरह के

उँच्चादर्शों से प्रेरित हो

कथनी में तो तो तुम

बहुत बड़े हो

करनी में तो जाहिलों से भी बढ़कर हो

मेरी कलम

तुम से मांग करती है

जीवन में हमारा क्या स्थान है

मुझे मेरे पूर्वजों के

बहे खून का अधिकार

दिला दो

गर जो खून

अब बहा मेरा

तुम अब भी न बच पाओगे

बात कर रहा हूँ मैं

जीवन में अन्याय का

पर तुम बहुत समझदार

अपने आप को

क्या समझते हो ?

हमें किसी भी दृष्टिकोण से

रद्द कर सकते हो

क्या ऐसा ही तुम समझते हो

मेरे खून की कीमत में

बीत्ता भर जमीं भी

नहीं देना चाहते हो

क्या इसलिए की मैं असिक्षित हूँ

मेरे शिक्षा को जिसे तुम

डिग्री कहते हो

अपने ही बेटे को

खिला दिए हो

मेरे नौकरी को

अपने गद्दी के खातिर

औरों में बाँट दिए हो

दृष्टिकोण का चश्मा हंटा लो

और देखना बंद हो

हमारे बारे में सोंचो

हमें अपने स्तर तक लाने में

जूझो और जुट पड़ो

हमें अज्ञान और करुआहट मत दो

सड़ने के लिए यहाँ मत छोडो

हमें एक बात कहो

महलों में तेरे हमारे पसीने

फैक्टरिओं में हमारे खून सने

तेरे हर ताने बाने हमारे

हाथों ने बुने

हम तुम्हारे जैसे इंसान नहीं कहो

ज्यादा मत दो अधिकार मुझे

पर इंसान की तरह जीने का

है अधिकार मुझे

उससे निचे गर जो ठेलोगे

खुद भी मिटटी में मिल जाओगे

आत्मा तो होगी तुम में भी बोलो

तुम्हारे तरह हमारे भी पेट हैं समझो

सभी बराबर हैं केवल ऐसा कहते हो

सभी एक दुसरे के लिए हैं

ऐसा भी तो समझो

तुमने तुम्हारे समाज ने

भाग्यहीन नारी का जीवन

बना दिया है

बेहद कठिन अर्थहीन

तथा उदेश्यहीन

आज तेरे समाज की नारी  
है बेहद किस्मत की मारी

बुरी तरह पीटी हुई

घर होते बेघर दुखियारी

पढ़ा लिखा कर बैल बना दी

तुमने जिसकी जिन्दगी सारी

एक बहन , माँ या

सच्ची गृहणी

न तुम बना पाए

सब को क्या से क्या बना दिया

जब तक जिन्दा लाशों की

आत्मा सोई हो

तभी तक तुम सभी

मौज मस्ती जी भर कर लो

तुम फिर कभी किसी को

सता नहीं पाओगे

बस एक बार

आत्मा को पुनर्जीवित हो जाने दो

फिर भी न समझे तुम कैसे हो ?

पोथी -पढ़ पढ़ कर

तुम बल हिन् हो गए हो

गधे तुम्हारे

पोथे को रहे हैं ढो

लेकिन तुम्हे

आत्मज्ञान नहीं हुआ प्राप्त जो

शोषित के हाथों से ही

जो तुम ले पाओ

तुम्हे महलों से

जब तक बाहर न फेंके

शायद तुम्हे तब तक

इंसानियत का एहसास न हो

तुम्हे हक़ है जीने का

मानवता के तुम अधिकारी हो  
मांगे न मिले तो छीन लो

क्रान्ति हो

और खून न बहे

भला यह कैसे हो

गर जो

अब तेरा खून बहे

रंग दो सारे धरती को

मत बैठो अब चुप

बहुत तुम ने सह लिया
अतिक्रमण

मत होने दो

वर्ना

संतति तेरे

तुझे ही कोसेंगे

सब कुछ है तेरे पास

बस एक

संकल्प करो

सफलता तेरे कदम चूमेगी

समझ सको तो समझो

तुम क्या हो कैसे हो ?



सुधीर कुमार ' सवेरा ' 10-03-1984 pm -

कोलकाता