68.
सड़क के किनारे
अँधेरी रात में
जनवरी का महिना
कड़ाके की ठंढक
बिजली के दो बड़े खम्भों के बिच
एक मनुष्य
पतली मैली चादर से लिपटा
सोता सा पड़ा हुआ
पेशाब की बू
नाली की सड़ांध
गन्दी मिट्टी का बिछौना
ऊपर नीला आकाश
चारों तरफ अँधेरा
किसी का नहीं सहारा
यह कोई दर्द की कविता नहीं
एक हकीकत है
और इन्सान
कितना बेबस
कितना लाचार
मैंने उसे इस हालत में देखा
एक संवेदना
एक सिहरन
टीस सी मन में उठी
पर मैं कुछ न कर सका
सिवाय कागज़ पे
दो बूंद स्याही के
संविधान शब्दों के रूप में
एक बेजान की तरह
मोटी किताबों के
कब्र में दफन
और मानवता
किसी अतीत की
कल्पना मात्र ?
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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