69.
मेरे दृष्टि के बाहर
शायद
अँधेरा ही अँधेरा
मैं उजाले के साथ
अँधेरे में भटक रहा
मेरा ठौर जहाँ
वहाँ से
खुद भागता हूँ
देखता हूँ
रोटी के
एक पपड़ी के लिये
जमीन एक बित्ते के लिए
जी तो सभी रहे हैं
पर
मेरा जीना अलग है
औरों के लिए
भ्रान्ति , मृगतृष्णा
दरारों से आच्छादित
कंटक युक्त राहें
देख मैं सब पा रहा हूँ
खुली रौशनी में
और नहीं समझेंगे
चूँकि मैं कोई
धर्म प्रचारक नहीं
मुल्ला या फकीर नहीं
नियति के नाटक में
मेरा वैसा
कोई भाग नहीं
मैं अपने खुली रौशनी में
किसी से
कह नहीं सकता
मुझे तुमसे प्यार नहीं
गर जो सच्चा प्यार है
कह नहीं सकता
मुझे तुमसे प्यार है
गर जो सच्चा प्यार नहीं
यही वजह है
मैं भटक रहा हूँ
खुली रौशनी में ही
सभी देखते हैं
इस कदर मुझे
जैसे वे देख रहे हों
किसी अजूबे जानवर को !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 24-03-1984 कोलकाता 3-15 pm
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