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मान्यताओं का पौधा
बड़ा विशाल हो गया
परम्परा की जड़
मिट्टी को खोद - खोदकर
अन्दर बहुत अन्दर तक
औरंगजेब चला गया
इतिहास खामोश हो गया
ब्रिटिशशाही कूच कर गई
पौधा बढ़ा और बढ़ा
हम ही माली थे
मौसम बदलता रहा
नीति का आदर्शों का
पर पानी न सींच सके
उगने को आई जब भी
नयी कोपलें
शाखाओं पर
अलबत्ता तोड़ डाले गये
ठूंठ बेबस बेजान
जड़ तक ही सीमित रहे
उसमे उसके प्राण
रखवाले का दावा
बस हम करते रहे
पर न नीर सिंचे
न खाद डाले
हमारी जड़
सूखती रही
सड़ती रही
पर स्पंदन भी
न हमारे दिल में जागे
बेखौफ मुस्तैद रहे
फिर न कोई
नयी कोपलें निकलें
स्व को न पहचान सके
द्वन्द में ही फंसे रहे
स्वार्थ का मसाला
लगा इतना चटपटा
बातों से
औरों को बहलाते रहे
और खुद हाथ अपना
चाटते रहे
हर घर में
बीच चौराहे पर
एसेम्बली में
न्यायालयों में
जड़ अपना ही उखाड़ कर
मेज को सजाते रहे
सेज को गर्माते रहे
दिल के किसी कोने में
हर सच के मासूमियत को
गांधी के आदर्शों को
मार्क्स के बच्चे को
बिना आवाज किये
गला तराशते रहे ।
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 26-03-1984 कोलकाता 5.45pm
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