67.
मैं अपने
एकांत ख्यालों से
बिखेरता हूँ लावा
जलन जिससे
शायद होती हो
मृतप्राय
आत्मा से
जीवन की
एक कसक सी होती है
बस
सफल हुआ
मेरा एकांत ख्याल
जिसे मैं बिखेरता हूँ
नक़ल का
बस नक़ल
होता आ रहा है
असल को तो
कब छोड़ गये
बस जीने का भी
नक़ल किये जा रहे हैं
बस जिन्दगी
यूँ ही चुप रहे
कलम की बस
निरंतर चप्पू चलती रहे
सब अवसादों
जिल्लत और अपमानों को
मैं पीता रहूँ
और तन्हाई में
एकांत ख्यालें निकलती रहें
नये इन्कलाब का
समाज देश का नहीं
बस व्यक्ति का ।
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 28-03-1984 कोलकाता 3-31pm
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