७१.
गीत गायी गयी थी
चिराग के आते ही
सूरज खिला हुआ था
भविष्य बहुत व्यथित था
कगार पर इंसान खड़ा था
अंकुरित बिज बढ़ा था
जिसे हर बसंत में
पतझर ही मिला था
ठुंठ सा बढ़ता हुआ
जड़ जिसका विवादपूर्ण था
फल की भी आशा थी
मानव का इतिहास रचा गया
जबरदस्ती शाखाओं पर
निकलने की नाकाम चेष्टा
गुडक - मुडक हो गयी
निकलने को थी जब नयी पंखुरियां
निकलती रही केवल व्यथा
डोली सजी थी दो दिलों ने चीखा
दोनों का संसार उजड़ा
जैसे ही शहनाइयां बजी थी
मिलन की
जब गीत गायी गयी थी
दो दिलों में
जुदाई की बिगुल बजी थी
बस सुख अरमानों के लिए
जिन्दगी को सड़क पे नापते हुए
एक नए सूरज की आशा लिए
पंख विहीन फरफराहट
यहाँ नहीं
जो चाहा था
मधुर सपनो का संसार
ओ उस पार
नीले - नीले
टीम - टीम करते तारे
बस छाया का एहसास
राख बनने को भी
सज गयी डोली
कन्धों पे चार
गीत तब भी
पर सुनने का सामर्थ कहाँ ?
नजरों को
नजरों से बचाते हुए
गीत गायी गयी थी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९-०३-१९८४
कोलकाता - १२-५० pm
गीत गायी गयी थी
चिराग के आते ही
सूरज खिला हुआ था
भविष्य बहुत व्यथित था
कगार पर इंसान खड़ा था
अंकुरित बिज बढ़ा था
जिसे हर बसंत में
पतझर ही मिला था
ठुंठ सा बढ़ता हुआ
जड़ जिसका विवादपूर्ण था
फल की भी आशा थी
मानव का इतिहास रचा गया
जबरदस्ती शाखाओं पर
निकलने की नाकाम चेष्टा
गुडक - मुडक हो गयी
निकलने को थी जब नयी पंखुरियां
निकलती रही केवल व्यथा
डोली सजी थी दो दिलों ने चीखा
दोनों का संसार उजड़ा
जैसे ही शहनाइयां बजी थी
मिलन की
जब गीत गायी गयी थी
दो दिलों में
जुदाई की बिगुल बजी थी
बस सुख अरमानों के लिए
जिन्दगी को सड़क पे नापते हुए
एक नए सूरज की आशा लिए
पंख विहीन फरफराहट
यहाँ नहीं
जो चाहा था
मधुर सपनो का संसार
ओ उस पार
नीले - नीले
टीम - टीम करते तारे
बस छाया का एहसास
राख बनने को भी
सज गयी डोली
कन्धों पे चार
गीत तब भी
पर सुनने का सामर्थ कहाँ ?
नजरों को
नजरों से बचाते हुए
गीत गायी गयी थी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९-०३-१९८४
कोलकाता - १२-५० pm
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