70.
बिच मँझदार में
नैया मेरी
उब - डूब , उब - डूब
झंझावत के थपेड़े से
चक्रवात में उलझी
मुझे नष्ट करने को
नियति
अपने विशाल नखयुक्त
जहरीले पंजे को फैलाये
किसी भी पल
काल का ग्रास
बनने के लिए
पंजे के बल
उचक कर खड़ा है
हर मुण्ड
जैसे फन हो
उन्मादी गुस्से के
जहरीले फुत्कार से
डंसने को तैयार है
तथाकथित इन्सान ही
किसी शिकारी पशु की तरह
मेरा जिस्म
तार - तार करने को तैयार है
बस एक तुम
मेरे अन्तरंग
मेरे सांसों के सरगम
मेरे जीवन के उमंग
बस तुम
सिथिल न होना
विश्राम न लेना
सदा मुझे
अपने जीवन में
तुम अपनाये रखना
याद रखना
भूल न जाना
हाँ - ओ मेरे प्यार
मुझे चाहिए बस तेरा प्यार
रहस्यमयी चादर की तरह
छाये रहो मेरे चारों तरफ
तुम मरना नहीं
मर जाना मेरे मरने के बाद !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-03-1984
- कोलकाता - 3.02 pm
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