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श्री भैरवी
अयुत उदित रवि रुचिर देह छवि अरुण पाट पट भासे।
रिपु शिर निकल माल उर शोभित दश दिश ज्योति विकासे।।
रुधिर लेपमय पीन पयोधर मुख अरविन्द समाने।
शशिधर रत्न मुकुट शिर शोभित मृदुल हास परधाने।।
पुस्तक अभय अक्ष जपमाला वर कर चारि निधाने।
निज जनि शंकरि असुर भयंकरी श्री भैरवी तुअ ध्याने।।
विषय विषम रस ह्रदय देवि पद भज तन धरत ने ज्ञाने।
भुवन भुवन तसु उदित सुकृति वसु से जन भव पर ध्याने।।
जगत जननि विनती कछु सुनिए रत्नपाणि भन दासे।
श्रीमिथिलेसक ह्रदय वास करू पुरिय तासु सभ आसे।।
( तत्रैव )
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