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श्रीमहालक्ष्मी
जै कमला कमलायत लोचनि भव भय मोचनि कन्या।
धन रूचि कुच चामी कर तनु रूचि चारि भुजा अतिधन्या।।
चारु किरीट विराजित मस्तक धारिनि पाटक चीरे।
लसय वराभय कर दूई दुह पदमयुगल सुधीरे।।
चारि कनकघट भरत सुधारस अमृत गज कर लाए।
वाम दहिन भय सिञ्चित कर मुख कमल मनोहर जाए।
मणिगण जटित लसित भूखण तनु करुणा करू जगमाता।।
शंकर किंकर इन्द्र आदि सुर सेवक जनिक विधाता।।
पंकज आसन परम विकासन ताहि उपर लस देवी।
रत्नपाणि तसु ध्यान मगन मन श्रीमिथिलेशक सेवी।।
( तत्रैव )
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