( उज्जवल सुमित )
२ ७ ० .
स्वपनिल संसार ये सारा
या आंखे मेरी उनिन्दें
भटके यूँ मारा - मारा
काली स्याही से पुती
हर घर की उजली दीवाल
नफरत क्यों मेरे सांसों में घुटी
तेरे शब्दों का छलन
खा गयी मेरी निर्दोषिता
भर गयी सीने में एक जलन
हर लम्हे की ये उदासी
देकर तुझको खुशियाँ सारी
मेरे जीवन में क्यों छायी ?
सुधीर कुमार ' सवेरा '
२ ८ - ० ६ - १ ९ ८ ४
१ - १ ५ pm कोलकाता
( उज्जवल सुमित )
२ ६ ९ .
मेरे नयनों की चाहत में
दिल जिनके बेचैन रहा करते थे
आज ये नैन हुए हैं बेचैन उनके लिए
पर उनके दिल को अब इसकी परवाह कहाँ
मेरे नैनों की सुन्दरता का बखान करते
जिनके ओठों पे थकान आती नहीं थी
मेरे आँखों से जिनके जीवन की आशा का
सन्देश मिला करता था
जो इन आँखों में अशुओं की बूंद देख नहीं सकती थी
वो आज गंगा जमुना बने इन नैनों की तरफ
देखना भी उन्हें गंवारा नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
१ ४ - ० ६ - १ ९ ८ ४
८ - १ ५ am
( उज्जवल सुमित )
२ ६ ८ .
जलते अलाव से
निकलती चिंगारियां
वन के जड़ से
कटती मिटटी
उल्लू की चीख से
गूंजती अमराईयाँ
बोझिल पलकों पे
उनिन्दे सपने
कफ़न के बिना
जलती चिताओं का दाह
पेट में उठती मरोड़
सांसों में बसती क्षुदा की आह !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
१ ८ - ० ५ - १ ९ ८ ४
१ २ - ० ० am
२ ६ ७ .
उनके आंसू बहे थे
उनके ख़ुशी के लिए
उनके ख़ुशी थे
मेरे आंसुओं के लिए
जब दर्द का साया मुझको आ घेरा
खुशियाँ हो गयी उनके लिए !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
० ४ - ० ६ - १ ९ ८ ४
१ ० - ० ० am राँची
२ ६ ६ .
बेताब जिगर लिए
तुझसे मिलने आया हूँ
सपनो में गुलशन सजाकर
दामन में खार लिए आया हूँ !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
० ३ - ० ५ - १ ९ ८ ४
५ - ३ ० pm
२ ६ ५ .
अरे ऐसे भी क्या जीते हो
हँसते - हँसते जीना सीखो
हर पल हर गम में
हर असफलता और निराशा में
जीना हो तो हँसना सीखो
जब कुछ ना भाये
मौसम भी बदरंग लगे
बस जरा सा हँस दो
हँसते ही सब लगे सुहाने
कुछ खट्टी कुछ तीखी
बातें जब भी सुनो कड़वी
कोई करे कभी अभद्रता
या कोई गाली देता
बस जरा सा हँस कर देखो
लगेगा न कुछ भी बुरा
किसी बात से गर तकलीफ हो
बस जरा सा हँस कर देखो
ऐसा कर पाना सहज नहीं
पर ऐसा निश्चित मानिये
मुस्कुराहट आपकी
व्यर्थ नहीं जाएगी
ऐसा ही जानिए !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २ ५ - ० ४ - १ ९ ८ ४
९ - ५ ३ am कोलकाता
२ ६ ४ .
शरीफ हैं वो
जो सामाजिक
राजनीतिक और सरकारी
गुंडों से त्रस्त हो
जो सब कुछ सहता हुआ
सहमता हुआ
हर अन्याय पर भी
खामोश हो
हर आशा जिसकी
बेवफा हो
लोगों ने सिर्फ
जिससे
विश्वासघात किया हो !
सुधीर कुमार ' सवेरा' ' २ ६ - ० ४ - १ ९ ८ ४
कोलकाता ६ - ५ ० pm
२ ६ ३ .
अंकित दीवार खड़ी थी
मेरे आत्मा की धरोहर
जिसमे पड़ी थी
बाहर से मैं पुकारता रहा
सभी सुन - सुन कर भी
ऊंघते रहे
मेरे अधरों से
उखड़े - उखड़े
गीत उड़ते रहे
रौशनदान से
गंदली धुप
घर को
मटमैला करती रही
प्यासा
मेरा रक्त
मैं खोजता रहा
हर जददोजहद से दूर
अपने वजूद को
ढूंढ़ता रहा
खाली - खाली
सब कुछ था
बन के
मैं
एक प्रतीक्षा का पात्र
त्यक्ता की तरह
बाहर खड़ा था !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
४ - ४ ५ pm
२ ६ २ .
अवसादों से लिपटा
तंग अरमानों के फूल
कंपकपाती
तृष्णा की लहर
अर्ध खिली
नन्ही पंखुरियां
वृक्ष विशाल
ढह जाते
न्यूनतम आकांक्षा
घासों के मैदान बन
कभी नहीं उखड़ते
डर उसे
ऊँची डाली पर
जिसके घोंसले
डर तितली के घर को क्या ?
पंखुरियों को घर आँगन
ऊपर विस्तृत नभ
उपवन की उन्मुक्त साम्राज्ञी
मौसम तो
रंग अपना
बदलता रहा
उसे अवसादों से क्या लेना
निरीह मन
अभिलाषाओं का फूल
सपनो को सिर्फ भाये
है यह एक गंध हीन फूल !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
० ४ - ० ८ pm
२ ६ १ .
अहं की तंग घाटी में
हर नया पौधा
जन्म लेता
पर
फूल नहीं देता
नदी से निकली
नहरें नहीं
नाले का पानी बहता
जो गुजरा
सो गुजरा
समय रहते चेतो
अब भी वक्त है
अपने आप को रोको
एक - एक कतरा
हर क्षण को
सम्पूर्णता से भोगो !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
३ - ५ ० pm
२ ६ ० .
काल का
अबाध चक्र
और
परिस्थितियों का दास
मनुष्य
हाँक दिया गया है
इंसानियत का
पटाक्षेप हो गया है
नेपथ्य से
आवाजें
गूंगी हो गयी है
मानवता का
पगडण्डी
संवेदनशील मोडों से
तलवार की
नंगी धार
कलेजे पे सजायी हुई थी
धार
जिसपे रक्त मेरे जमे थे
और ऑंखें मुंद चुकी थी
शायद अमावश्या की रात थी
हाथों को हाथ नहीं सूझता था
शीश कहाँ नवाता ?
मंदिर नहीं दिखता था
संज्ञा शून्य हो
क्षितिज के उस पार
विचर रहा था मैं
मृत्यु के नभ में !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
३ - ५ ० pm
२ ५ ९ .
ज्वार भाटा
और समुद्र का किनारा
तनहा परछाई
अव्यक्त हाव भाव
निरीह आराधना
श्रवण शक्ति के लिए
कमजोड पड़ गयी
समुद्र की भीषण गर्जना
निर्विकार सउद्देश्य
खड़ा मूर्तिमान
खंठ से मेरे
अज्ञानवश
एक प्रश्न उभरा
मित्रवर्य ! क्या कुछ खो गया ?
जवाब में
एक निश्छल निराकार मुस्कराहट
और दृष्टिबोध से दूर
सामने
समुद्र की शून्य ओर
उठती हुई
उसकी ऊँगली के
इंगित स्थान !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
३ - १ २ pm
२ ५ ८ .
अकुलाहट भरी फुसफुसाहट
शायद तूफान के आने का इशारा
आवाज के रेगिस्तान में
प्यासे भटकते श्रोता
जाम पीते वक्ता
मन का मीत
अन्दर की चीख
विपन्न गायक
घुटता रहा
निगल गया
शायद उसको
मानवता का गीत
दीवार खड़ी थी
सड़ी समाज की भीत
भाग नहीं पाया
धूम्र का गोल - गोल वलय बन
शायद खो गया
अभोग से ऊबकर
शायद गुम हो गया
कहने वाले के लिए
फिर भी कुछ रह गया
छिद्रयुक्त समाज की भीति
हिली
चरमराई
और ढह गयी
किसी बिना कानो वाले नगर में
आवाजों की चीख भर रह गयी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
२ - ५ ० pm
२ ५ ७ .
अर्ध खिली चाँदनी
अगम्य अपार
बोध गम्य
इन्द्रियों के उस पार
व्याधि रहित सार गम्य
चाँद के उस पार
खुला - खुला
गोरा आसमान
दूर से गूंज आयी
स्वरों की मधुर लहरी
शायद झील के उस पार
तर्क हीन
वृथा का दम्भ
सारगर्भित मन का
आकुल आनन्
और सभी
दरवाजे बंद
अन्जान सुनसान
रिक्त राहें
चाँद कब खिला
पता नहीं
शायद दिवास्वप्न था
इक्षायें ही तो नहीं मरती
जाग कभी पाते नहीं
रह जाती है वही पूर्व स्थिति !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
२ - ३ ८ pm