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अकुलाहट भरी फुसफुसाहट
शायद तूफान के आने का इशारा
आवाज के रेगिस्तान में
प्यासे भटकते श्रोता
जाम पीते वक्ता
मन का मीत
अन्दर की चीख
विपन्न गायक
घुटता रहा
निगल गया
शायद उसको
मानवता का गीत
दीवार खड़ी थी
सड़ी समाज की भीत
भाग नहीं पाया
धूम्र का गोल - गोल वलय बन
शायद खो गया
अभोग से ऊबकर
शायद गुम हो गया
कहने वाले के लिए
फिर भी कुछ रह गया
छिद्रयुक्त समाज की भीति
हिली
चरमराई
और ढह गयी
किसी बिना कानो वाले नगर में
आवाजों की चीख भर रह गयी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
२ - ५ ० pm
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