२ ६ ० .
काल का
अबाध चक्र
और
परिस्थितियों का दास
मनुष्य
हाँक दिया गया है
इंसानियत का
पटाक्षेप हो गया है
नेपथ्य से
आवाजें
गूंगी हो गयी है
मानवता का
पगडण्डी
संवेदनशील मोडों से
तलवार की
नंगी धार
कलेजे पे सजायी हुई थी
धार
जिसपे रक्त मेरे जमे थे
और ऑंखें मुंद चुकी थी
शायद अमावश्या की रात थी
हाथों को हाथ नहीं सूझता था
शीश कहाँ नवाता ?
मंदिर नहीं दिखता था
संज्ञा शून्य हो
क्षितिज के उस पार
विचर रहा था मैं
मृत्यु के नभ में !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
३ - ५ ० pm
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