२ ६ ३ .
अंकित दीवार खड़ी थी
मेरे आत्मा की धरोहर
जिसमे पड़ी थी
बाहर से मैं पुकारता रहा
सभी सुन - सुन कर भी
ऊंघते रहे
मेरे अधरों से
उखड़े - उखड़े
गीत उड़ते रहे
रौशनदान से
गंदली धुप
घर को
मटमैला करती रही
प्यासा
मेरा रक्त
मैं खोजता रहा
हर जददोजहद से दूर
अपने वजूद को
ढूंढ़ता रहा
खाली - खाली
सब कुछ था
बन के
मैं
एक प्रतीक्षा का पात्र
त्यक्ता की तरह
बाहर खड़ा था !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४
४ - ४ ५ pm
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