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भगवती सरस्वती के अनन्य उपासक महर्षि याज्ञवल्क्य।
महर्षि याज्ञवल्क्य की जन्म - भूमि मिथिला है। मिथिला के लोग प्रारम्भ से ही मातृभक्त थे। महर्षि याज्ञवल्क्य भी परम मातृभक्त थे। वे बाल्यावस्था में अपने शिक्षा - गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया करते थे। माता के सामने वह किसी को भी ऊँचा स्थान देना नहीं चाहते थे। माता की भक्ति में वे इस तरह लीन रहा करते थे कि गुरु के ज्ञान और गुरु के गौरव का उनके ह्रदय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था। इसलिए गुरुदेव ने उन्हें शाप दे दिया था कि
' तूं मूर्ख ही रहेगा । ' इस शाप को छुड़ाने के लिए सिवा माता की शरण के उनके पास दूसरा कोई उपाय नहीं था। बालक जाए भी तो कहाँ ? दुःख हो या महा दुःख , माता के बिना रक्षक संसार में कौन है ?
याज्ञवल्क्य ने माता की स्तुति की। मनसा वाचा कर्मणा उन्होंने जो स्तुति की , उस पर माता का ह्रदय द्रवित हो उठा। याज्ञवल्क्य शाप से ही छुटकारा नहीं पाना चाहते थे , वे यह भी चाहते थे कि विद्वान बनकर रहें। इसलिए माता से उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि ' मेरी बुद्धि निर्मल हो जाये , मैं विद्वान बनूँ। ' माता ने वैसा ही किया तथा बुद्धि - दात्री सरस्वती का रूप धारण कर याज्ञवल्क्य को वैसा ही बनने के लिए अपने आशीर्वाद दिए। माता एक ही है किन्तु अपने भक्तों यानी पुत्रों पर कृपा करने के समय जब जिस रूप में उसकी आवश्यकता होती है , वह उसी रूप में आकर रक्षा करती है। एक ही माता दूध पिलाते समय धायी का काम करती है , जन्म देने के समय जननी बन जाती है , मल - मूत्र साफ़ करने समय मेहतरानी बन जाती है , रोगी बनने पर वैद्य बन जाती है , सेवा - सुश्रुषा के समय दासी बन जाती है और न जाने अपने पुत्र के लिए वह क्या - क्या बन जाती है , इसे अनुभवी ही हृदयङ्गम कर सकता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य को विद्वान बनना था , इसलिए माता ने सरस्वती का रूप धारण कर उनकी बुद्धि को , उनकी मेधा - शक्ति को और प्रतिभा को निर्मल बना दिया , वे संसार की सारी वस्तुएँ स्पष्ट देखने लगे। स्तुति का प्रभाव ऐसा ही होता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता की ऐसी ही स्तुति की , जिससे वे प्रसन्न हो गई और वरदान दिया कि ' तुम्हारी बुद्धि सूर्य की किरणों की तरह सर्वत्र प्रवेश करनेवाली होगी और जो कुछ अध्यन - मनन - चिंतन करोगे वह सब तुम्हे सदा - सर्वदा स्मरण रहेगा। ' यह है मातृ - भक्ति का प्रसाद।
महर्षि याज्ञवल्क्य उसी समय से तीक्ष्ण बुद्धिवाले हो गए। उन्होंने जो कुछ भी लिखा , वह आज तक भारत में ही नहीं , भारत से बाहर भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है। ' याज्ञवल्क्य स्मृति ' और उस का ' दाय भाग ' भारतीय कानून का एक महान अंश है। यह सब माता की कृपा का ही सुपरिणाम है।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता को सोते , जागते , उठते , बैठते - सदा - सर्वदा जो स्तुति की , प्रभावित होकर माता ने उनकी मूर्खता सदा के लिए दूर कर दी ; गुरु के शाप से छुड़ा दिया ; विद्या का अक्षय भंडार उनके सामने रख दिया।
जिस स्तुति से महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता की प्रार्थना की थी , उसे ' श्रीवाणी - स्तोत्रम ' ९ सरस्वती का महा - स्तोत्र ) कहा जाता है। इस स्तोत्र में महर्षि याज्ञवल्क्य ने यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि ' मैं गुरु के शाप से पीड़ित हूँ। मुहे माता ही इस शाप से छुटकारा दिला सकती है। माता के गौरव का भी महर्षि याज्ञवल्क्य ने वर्णन किया है। अन्त में स्तोत्र की महिमा भी बताई गयी है कि मुर्ख - से - मुर्ख व्यक्ति भी यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र का पाठ करे , तो वह मूर्खता से मुक्त हो सकता है। नित्य पाठ करनेवाला महा - दुर्बुद्धि और महा मुर्ख भी महा - पण्डित और मेधावी हो जाएगा।
यह स्तोत्र तंत्र - शास्त्र का एक अमूल्य रत्न है। यदि इस स्तोत्र के विषय में यह कहा जाय कि यह महर्षि याज्ञवल्क्य का ' अनुभूत प्रयोग ; है तो अति - रञ्जित नहीं होगा।
' श्रीवाणी - स्तोत्रम '
कृपा कुरु जगन्मातर्मामेवं हत - तेजसं।
गुरु - शापात स्मृति - भ्रष्टं विद्या - हीनं च दुःखितं।।१
ज्ञानं देहि स्मृति विद्यां , शक्ति शिष्य - प्रबोधिनीम।
ग्रन्थ - कर्तृत्व - शक्तिं च , सु - शिष्यं सु - प्रतिष्ठितम।।२
प्रतिभाँ सत - सभायां च , विचार - क्षमतां शुभाम।
लुप्तं सर्वं देव - योगात नवी - भूतं पुनः कुरु।।३
यथांकुरं भस्मनि च , करोति देवता पुनः।
ब्रह्म - स्वरूपा परमा , ज्योति - रूपा सनातनी।।४
सर्व - विद्याधि - देवि या , तस्यै वाण्यै नमो नमः।
विसर्ग - विन्दु - मात्रासु , यादाधिष्ठानमेव च।.५
तदधिष्ठात्री या देवि , तस्यै नीत्यै नमो नमः।
व्याख्या - स्वरूपा सा देवी , व्याख्याधिष्ठात्री - रूपिणी।।६
यया विना प्र - संख्या - वान , संख्या कर्तुं न शक्यते।
काल - संख्या - स्वरूपा या , तस्यै देव्यै नमो नमः।।७
भ्रम - सिद्धान्त - रूपा या , तस्यै देव्यै नमो नमः।
स्मृति - शक्ति - ज्ञान - शक्ति - बुद्धि - शक्ति - स्वरूपिणी।।८
प्रतिभा - कल्पना - शक्तिः , या च तस्यै नमो नमः।
सनत - कुमारो ब्रह्माणंम , ज्ञानं प्रपच्छ यत्र वै।.९
बभूव मूक - वत्सोsपि , सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः।
तदा जगाम भगवान , आत्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः।।१०
उवाच स च तां स्तौहि , वाणीमिष्टां प्रजा - पते।
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा , चाज्ञया परमात्मनः।।११
चकार तत - प्रसादेन , तदा सिद्धान्तमुत्तमम।
तदाप्यनन्तं प्रपच्छ , ज्ञानमेकं वसन्धरा।।१२
बभूव मूक - वत्सोsपि , सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः।
तदा तां स च तुष्टाव , सन्त्रस्तो कश्यपाज्ञया।।१३
ततश्चकार सिद्धान्तम , निर्मलं भ्रम - भंजनम।
व्यासः पुराण - सूत्रं च , प्रपच्छ वाल्मीकि यदा।।१४
मौनी - भूतश्च संस्मार , तामेव जगदम्बिकाम।
तदा चकार सिद्धान्तं , तद वरेण मुनीश्वरः।।१५
सम्प्राप्य निर्मलं ज्ञानम , भ्रमान्ध्य - ध्वंस - दीपकम।
पुराण - सूत्रं श्रुत्वा च , व्यासं कृष्ण - कुलोदभवः।।१६
तां शिवां वेद - दध्यौ च , शत वर्षं च पुष्करे।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य , सत - कवीन्द्रो बभूव ह।.१७
तदा वेद - विभागं च पुराणं च चकार सः।
यदा महेन्द्रः प्रपच्छ तत्त्व - ज्ञानं सदा - शिवम्।।१८
क्षणं तामेव संचिन्त्य , तस्मै ज्ञानं ददौ विभुः।
प्रपच्छ शब्द - शास्त्रं च महेन्द्रश्च वृहस्पतिम।। १९
दिव्यं वर्ष - सहस्त्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य , दिव्य - वर्ष - सहस्त्रकम।।२०
उवाच शब्द - शास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम।
अध्यापिताश्च ये शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः।।२१
ते च तां परि - संचिन्त्य ,प्रवर्तन्ते सुरेश्वरोम।
त्वं संस्तुता पूजिता च , मुनीन्द्रैः मनु - मानवै: २२
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि , ब्रह्म - विष्णु - शिवादिभिः।
जडी - भूतः सहस्त्रास्य: , पञ्च - वक्त्रश्चतुर्मुखः।।२३
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि , तामेकास्येन मानवः।
इत्युक्त्वा याग्वल्क्यश्च , भक्ति - नम्रात - कन्धरः।।२४
प्रणनाम निराहारो , रुरोद च मुहुर्मुहः।
ज्योति - रूपा महा - माया , तेन द्रष्टापयुवाच तम।.२५
सा कवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा , बैकुण्ठं च जगाम ह।
याज्ञवल्क्य - कृतं वाणी - स्तोत्रमेतत्तु यः पठेत।।२६
स कवीन्द्रो महा - वाग्मी , वृहस्पति - समो भवेत्।
महा - मूर्खश्च दुर्बुद्धि , वर्षमेकं यदा पठेत।।२७
स पण्डितश्च मेधावी , सु - कवीन्द्रो भवेद ध्रुवम।२८
साभार ---बिहार में शक्ति - साधना
अशुद्धि हेतु क्षमा प्रार्थी।